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प्रकरण पाँचवाँ
वस्त्र नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार अपने भाव द्वारा परभाव किया जाना अशक्य होने से (जीव), पुद्गल भावों का कर्ता तो कदापि नहीं है - यह निश्चय है ।
(- श्री समयसार, गाथा 80 से 82 की टीका) (3) ...संसार और नि:संसार अवस्थाओं को पुद्गलकर्म के विपाक का सम्भव और असम्भव निमित्त होने पर भी, पुद्गलकर्म और जीव को व्याप्यव्यापकभाव का अभाव होने से कर्ताकर्मपने की असिद्धि होने से, जीव ही स्वयं अन्तर्व्यापक होकर संसार अथवा निःसंसार अवस्था में आदि-मध्य-अन्त में व्याप्त होकर संसार अथवा निःसंसार- ऐसे अपने को करता हुआ, अपने एक को ही करता हुआ प्रतिभासित हो परन्तु अन्य को करता हुआ प्रतिभासित न हो.... ( - श्री समयसार, गाथा 83 की टीका)
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(4) आत्मा अपने ही परिणाम को करता हुआ प्रतिभासित हो; पुद्गल के परिणाम को करता तो कभी प्रतिभासित न हो । आत्मा और पुद्गल - दोनों की क्रिया एक आत्मा ही करता है। ऐसा माननेवाले मिथ्यादृष्टि हैं। जड़-चेतन की एक क्रिया हो तो सर्व द्रव्य बदल जाने से सर्व का लोप हो जाए - यह महान दोष उत्पन्न होगा। (- श्री समयसार, गाथा 83 का भावार्थ ) (5) ...इसलिए जीव के परिणाम को, अपने परिणाम को और अपने परिणाम के फल को न जाननेवाला - ऐसा पुद्गलद्रव्य ... परद्रव्य परिणामस्वरूप से कर्म को नहीं करता, इसलिए उस पुद्गलद्रव्य को जीव के साथ कर्ता-कर्मभाव नहीं है।
(- श्री समयसार, गाथा 79 की टीका) (6) ... कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्य का कर्ता है ही नहीं;