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________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला 121 व्याप्य-व्यापकभाव के बिना कर्ता-कर्मभाव नहीं होता। जो ऐसा जानता है, वह पुद्गल और आत्मा में कर्ता-कर्मभाव नहीं है - ऐसा जानता है; ऐसा जानने से वह ज्ञानी होता है; कर्ता-कर्मभाव रहित होता है और ज्ञाता-दृष्टा अर्थात् जगत् का साक्षीभूत होता है। (- श्री समयसार, कलश 49 भावार्थ) व्याप्य-व्यापकभाव या कर्ता-कर्मभाव एक ही पदार्थ में लागू होते हैं, भिन्न-भिन्न पदार्थों में वे लागू नहीं हो सकते। वास्तव में कोई दूसरों का भला-बरा कर सकता है: कर्म जीव को संसार में परिभ्रमण कराते हैं - इत्यादि मानना, वह अज्ञान है। निमित्त के बिना कार्य नहीं होता, निमित्त पाकर कार्य होता है - यह कथन व्यवहारनय के हैं। ऐसे कथनों को निश्चय का कथन मानना भी अज्ञानता है। प्रश्न 18 - जीव के विकारी परिणाम और पुद्गल के विकारी परिणाम (कर्म) को परस्पर कर्ताकर्मपना है? उत्तर - नहीं; क्योंकि - (1) जीव, कर्म के गुणों को नहीं करता, और कर्म, जीव के गुणों को नहीं करता परन्तु परस्पर निमित्त से दोनों के परिणाम जानो। इस कारण आत्मा अपने ही भाव से कर्ता है, परन्तु पुद्गलकर्म द्वारा किये गये सर्व भावों का कर्ता नहीं है। (- श्री समयसार, गाथा 80-81-82) (2) ...जिस प्रकार मिट्टी द्वारा घड़ा किया जाता है; उसी प्रकार अपने भाव द्वारा अपना भाव किया जाता है, इसलिए जीव अपने भावों का कर्ता कदाचित् है, किन्तु जिस प्रकार मिट्टी द्वारा
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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