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________________ 120 प्रकरण पाँचवाँ केवलज्ञान करता है, इसलिए और स्वयं ही सहज ज्ञानस्वभाव द्वारा ध्रुव रहता है, इसलिए स्वयं ही अपादान है; अपने में ही, अर्थात् अपने ही आधार से केवलज्ञान करता है, इसलिए स्वयं ही अधिकरण है। ___ इस प्रकार स्वयं छह कारकरूप होने से वह स्वयंभू' कहलाता है... (- श्री प्रवचनसार, गाथा 16 भावार्थ) प्रश्न 16 - क्या व्याप्य-व्यापकभाव के बिना कर्ता-कर्म की स्थिति हो सकती है? उत्तर - नहीं; व्याप्य-व्यापकभाव के सम्भव बिना कर्ताकर्म की स्थिति नहीं हो ही सकती। व्याप्यव्यापकभावसंभवमृते का कर्तृकर्मस्थितिः? अर्थः - व्याप्य-व्यापकभाव के सम्भव बिना कर्ता-कर्म की स्थिति कैसी? (- श्री समयसार गाथा 75, कलश 49) प्रश्न 17 - व्याप्य-व्यापकभाव का क्या अर्थ है ? उत्तर - 'जो सर्व अवस्थाओं में व्यापे, वह तो व्यापक है और कोई एक अवस्था विशेष, वह (उस व्यापक का) व्याप्य है; इस प्रकार द्रव्य तो व्यापक है और पर्याय व्याप्य है; द्रव्य-पर्याय अभेदरूप ही हैं... ऐसा होने से द्रव्य, पर्याय में व्याप्त होता है और पर्याय, द्रव्य द्वारा व्याप्त हो जाती है। ऐसा व्याप्य-व्यापकपना तत्स्वरूप में ही अर्थात् अभिन्न सत्तावान् पदार्थ में ही होता है, अतत्स्वरूप में अर्थात् जिनकी सत्ता-सत्त्व भिन्न-भिन्न है - ऐसे पदार्थों में नहीं होता। जहाँ व्याप्य-व्यापकभाव हो, वहीं कर्ता-कर्मभाव होता है;
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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