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अध्याय पहला सम्यग्ज्ञानचंद्रिका-पीठिका
___ (दोहा)
शास्त्राभ्यास से लाभ १. ज्ञान से ही सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। २. ज्ञान से ही कषायों का अभाव हो जाता है। ३. ज्ञानाभ्यास से माया, मिथ्यात्व, निदान हू इन तीन शल्यों का नाश होता है। ४. ज्ञान के अभ्यास से ही मन स्थिर होता है। ५. ज्ञान से ही अनेक प्रकार के दुःखदायक विकल्प नष्ट हो जाते हैं। ६. ज्ञानाभ्यास से ही धर्मध्यान व शुक्लध्यान में अचल होकर बैठा जाता है। ७. ज्ञानाभ्यास से ही जीव व्रत-संयम से चलायमान नहीं होते। ८. ज्ञान से ही जिनेन्द्र का शासन प्रवर्तता है। अशुभ कर्मों का नाश होता है। ९. ज्ञान से ही जिनधर्म की प्रभावना होती है। १०, ज्ञान के अभ्यास से ही लोगों के हृदय में पूर्व का संचित कर रखा हुआ
पापरूप कर्म का ऋण नष्ट हो जाता है। ११. अज्ञानी जिस कर्म को घोर तप करके कोटि पर्व वर्षों में खिपाता है. उस कर्म
को ज्ञानी अंतर्मुहूर्त में ही खिपा देता है। १२. ज्ञान के प्रभाव से ही जीव समस्त विषयों की वाञ्छा से रहित होकर संतोष
धारण करते हैं। १३. ज्ञानाभ्यास/शास्त्राभ्यास से ही उत्तम क्षमादि गुण प्रगट होते हैं। १४. ज्ञान से ही भक्ष्य-अभक्ष्य का, योग्य-अयोग्य का, त्यागने-ग्रहण करने
योग्य का विचार होता है। १५. ज्ञान से ही परमार्थ और व्यवहार दोनों व्यक्त होते हैं। १६. ज्ञान के समान कोई धन नहीं है और ज्ञानदान समान कोई अन्य दान नहीं है। १७. ज्ञान ही दुःखित जीव को सदा शरण अर्थात् आधार है। १८. ज्ञान ही स्वदेश में एवं परदेश में सदा आदर कराने वाला परम धन है। १९. ज्ञान धन को कोई चोर चुरा नहीं सकता, लूटने वाला लूट नहीं सकता,
खोंसनेवाला खोंस नहीं सकता। २०. ज्ञान किसी को देने से घटता नहीं है, जो ज्ञान-दान देता है। उसका ज्ञान
निरन्तर बढ़ता ही जाता है। २२. ज्ञान से ही मोक्ष प्रगट होता है।
(रत्नकरण्ड श्रावकाचार : अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावना)
वन्दौं ज्ञानानन्द-कर, नेमिचन्द गुणकंद। माधव-वन्दित विमल पद, पुण्य पयोनिधि नंद।।१।। दोष दहन गुन गहन घन, अरि करि हरि अरहंत। स्वानुभूति-रमनी-रमन, जग-नायक जयवंत ||२|| सिद्ध शुद्ध साधित सहज, स्वरस सुधारस धार| समयसार शिव सर्वगत, नमत होऊ सुखकार ||३|| जैनी बानी विविध विधि, वरनत विश्व प्रमान। स्यात्पद मुद्रित अहितहर, करहु सकल कल्यान ||४|| मैं नमो नगन जैन जन, ज्ञान-ध्यान धन लीन | मैन मान बिन दान धन, एन हीन तन छीन ||५|| इह विधि मंगल करन तें, सब विधि मंगल होत। होत उदंगल दूरि सब, तम ज्यों भानु उद्योत ||६|| अब मंगलाचरण करके श्रीमद् गोम्मटसार, जिसका अपर नाम पंचसंग्रह ग्रन्थ, उसकी देशभाषामय टीका करने का उद्यम करता हूँ। यह ग्रन्थसमुद्र तो ऐसा है, जिसमें सातिशय बुद्धि-बल युक्त जीवों का भी प्रवेश होना दुर्लभ है और मैं मंदबुद्धि (इस ग्रन्थ का) अर्थ प्रकाशनेरूप इसकी टीका करने का विचार कर रहा हूँ।