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सम्यग्ज्ञानचंद्रिका-पीठिका
गुणस्थान-प्रवेशिका यह विचार तो ऐसा हुआ, जैसे कोई अपने मुख से जिनेन्द्रदेव के सर्व गुणों का वर्णन करना चाहे, किन्तु वह कैसे बने ?
१. प्रश्न : नहीं बनता है तो उद्यम क्यों कर रहे हो ?
उत्तर : जैसे जिनेन्द्रदेव के सर्व गुणों का वर्णन करने की सामर्थ्य नहीं है; फिर भी भक्त पुरुष भक्ति के वश होकर अपनी बुद्धि के अनुसार गुणवर्णन करता है; उसीप्रकार इस ग्रन्थ के सम्पूर्ण अर्थ का प्रकाशन करने की सामर्थ्य न होने पर भी अनुराग के वश मैं अपनी बुद्धि-अनुसार (गुण) अर्थ का प्रकाशन करूँगा।
२. प्रश्न : यदि अनुराग है, तो अपनी बुद्धि अनुसार ग्रन्थाभ्यास करो; किन्तु मंदबुद्धिवालों को तो टीका करने का अधिकारी होना उचित नहीं है?
उत्तर : जैसे किसी पाठशाला में बहुत बालक पढ़ते हैं, उनमें कोई बालक विशेष ज्ञान रहित है; फिर भी अन्य बालकों से अधिक पढ़ा है, तो वह अपने से अल्प पढ़नेवाले बालकों को अपने समान ज्ञान होने के लिये कुछ लिख देने आदि के कार्य का अधिकारी होता है। उसीप्रकार मुझे विशेष ज्ञान नहीं है; फिर भी कालदोष से मुझ से भी मंद बुद्धिवाले हैं
और होंगे ही, उन्हीं के लिये मुझ समान इस ग्रन्थ का ज्ञान होने के लिये टीका करने का अधिकारी हुआ हूँ।
३. प्रश्न : यह कार्य करना है तू ऐसा तो आपने विचार किया; किन्तु जिसप्रकार छोटा मनुष्य बड़ा कार्य करने का विचार करे, तो वहाँ पर उस कार्य में गलती होती ही है और वहाँ वह हास्य का स्थान बन जाता है। उसीप्रकार आप भी मंदबुद्धिवाले होकर इस ग्रन्थ की टीका करने का विचार कर रहे हैं, तो गलती होगी ही और वहाँ हास्य का स्थान बन जायेंगे।
उत्तर : यह बात सत्य है कि मैं मंदबुद्धि होने पर भी ऐसे महान् ग्रन्थ की टीका करने का विचार कर रहा हूँ। वहाँ भूल तो हो सकती है; किन्तु सज्जन हास्य नहीं करेंगे।
जिसप्रकार दूसरे बालकों से अधिक पढ़ा हुआ बालक कहीं भूल करे, तब बड़े जन ऐसा विचार करते हैं कि बालक है भूल करे ही करे; किन्तु अन्य बालकों से भला है, इसप्रकार विचार कर वे हास्य नहीं करेंगे। ___ उसीप्रकार मैं यहाँ कहीं भूल जाऊँ तो वहाँ सज्जन पुरुष ऐसा विचार करेंगे कि वह मंदबुद्धि था, सो भूले ही भूले; किन्तु कितने ही अतिमंदबुद्धिवालों से तो भला ही है ह ऐसा विचार कर हास्य नहीं करेंगे।
४. प्रश्न : सज्जन तो हास्य नहीं करेंगे; किन्तु दुर्जन तो करेंगे ही ?
उत्तर : दुष्ट तो ऐसे ही होते हैं, जिनके हृदय में दूसरों के निर्दोष/भले गुण भी विपरीतरूप ही भासते हैं; किन्तु उनके भय से जिसमें अपना हित हो, ऐसे कार्य को कौन नहीं करेगा ?
५. प्रश्न : पूर्व ग्रन्थ तो हैं ही, उन्हीं का अभ्यास करने-कराने से ही हित होता है; मंदबुद्धि से ग्रन्थ की टीका करने की महंतता क्यों प्रगट करते हो?
उत्तर : ग्रन्थ का अभ्यास करने से ग्रन्थ की टीका रचना करने में उपयोग विशेष लग जाता है, अर्थ भी विशेष प्रतिभास में आता है। अन्य जीवों को ग्रन्थाभ्यास कराने का संयोग होना दुर्लभ है और संयोग होने पर भी किसी जीव को ही अभ्यास होता है। ग्रन्थ की टीका बनने से तो परम्परागत अनेक जीवों को अर्थ का ज्ञान होगा। इसलिये अपना और अन्य जीवों का विशेष हित होने के लिये टीका करते हैं; महंतता का तो कुछ प्रयोजन ही नहीं है।
६. प्रश्न : यह सत्य है कि इस कार्य में विशेष हित होता है; किन्तु बुद्धि की मंदता से कहीं भूल से अन्यथा अर्थ लिखा जाय, तो वहाँ महापाप की उत्पत्ति होने से अहित भी होगा ?
उत्तर : यथार्थ सर्व पदार्थों के ज्ञाता तो केवली भगवान हैं, दूसरों को ज्ञानावरण के क्षयोपशम के अनुसार ज्ञान है, उनको कोई अर्थ अन्यथा भी प्रतिभासे; किन्तु जिनदेव का ऐसा उपदेश है ह्र
"कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्रों के वचन की प्रतीति से व हठ से व क्रोध,