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गुणस्थान- प्रवेशिका अप्रमत्त का स्पष्टीकरण - पूर्वोक्त १५ प्रमादों की अभावरूप दशा अप्रमत्त दशा है। अप्रमत्त कहो अथवा ध्यानावस्था कहो दोनों का एक ही अर्थ है ।
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सम्यक्त्व - स्वस्थान अप्रमत्त अवस्था में औपशमिकादि तीनों सम्यक्त्व में कोई एक सम्यक्त्व रहता है। सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान में द्वितीयोपशम और क्षायिक सम्यक्त्व में से कोई भी एक सम्यक्त्व रहता है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के साथ श्रेणी पर आरोहण करने का कार्य नहीं होता; क्योंकि चल, मल, अगाढ़ दोष बाधक बनते हैं।
चारित्र - क्षायोपशमिक चारित्र ।
संज्वलन कषाय चौकड़ी के तीव्र उदय के स्थान पर मंद उदय इतना मात्र परिवर्तन कर देने पर पूर्वोक्त (छठवें गुणस्थान के) क्षयोपशमवत् यहाँ भी घटित होता है।
काल - मरण की अपेक्षा जघन्य काल एक समय ।
उत्कृष्ट काल - अंतर्मुहूर्त ।
गमनागमन अप्रमत्त का ऊपर की ओर गमन आठवें में ही तथा नीचे की ओर गमन छठवें में ही होता है।
पहले, चौथे, पाँचवें, छठवें तथा श्रेणी से गिरते समय आठवें से भी यहाँ आगमन होता है। सातवें में से मरण के समय चौथे में ही गमन होता है।
विशेषता - सातिशय अप्रमत्त में चार आवश्यक होते हैं -
१. समय-समय प्रति अनंतगुणी - विशुद्धि ।
२. स्थिति-बंधापसरण अर्थात् नवीन कर्म का बन्ध क्रमशः कमकम स्थिति सहित बंधता है।
३. प्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग समय-समय अनंतगुणा बढ़ता है।
४. अप्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग समय-समय अनंतगुणा घटता है। ५. यहाँ अप्रमत्त शब्द आदि दीपक है, अतः यहाँ से लेकर ऊपर के गुणस्थान अप्रमत्त ही हैं।
सभी
अप्रमतविस्त गुणस्थान
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६. उपरिम समयवर्ती जीवों के परिणामों से निम्न समयवर्ती जीवों के परिणामों की सदृश-विसदृश स्थिति को अधःप्रवृत्तकरण कहते हैं।
७. चारित्र मोहनीय के उपशम तथा क्षय के प्रसंग में अपूर्वकरण सन्मुख शुद्धोपयोग परिणामों को अधः प्रवृत्तकरण कहते हैं।
८. सातवें में मरण कर विग्रह-गति में चौथा गुणस्थान हो जाता है। अथवा मरण के पहले सातवें से ६,५,४ गुणस्थानों में आ कर मरण हो सकता है; परन्तु यह नियम नहीं है कि सातवें गुणस्थानवाला चौथे में ही आ कर मरण करे। क्योंकि सातवें गुणस्थान में भी मरण हो सकता है।
यहाँ अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में तो प्रति समय अनंतगुणी वीतरागता बढ़ती ही जाती है। यदि सातिशय अप्रमत्तसंयत मुनिराज के यथायोग्य मात्र एक अंतर्मुहूर्त काल के असंख्यात समयों में समय-समय प्रति अनंतगुणी वीतरागता बढ़ती जाती है तो वह वीतरागता आगे कितनी बढ़ सकती है, इसका सामान्य बोध हमें आगम प्रमाण से हो जाता है। अनंत का प्रत्यक्ष ज्ञान तो मात्र सर्वज्ञ भगवान को ही होता है।
वीतरागता के अनंतगुणी वृद्धि का एवं कषाय के उत्तरोत्तर हानी / हीन हीन होने का यह क्रम जीव जब जक पूर्ण वीतरागतारूप नहीं परिणमता है तब तक अर्थात् ११ वें या १२ वें गुणस्थान पर्यंत लगातार चलता ही रहता है।
इसके फलस्वरूप स्वभाव में विशेष मग्नता और प्रचुर अतीन्द्रिय आनन्द का भोग मुनिप्रवर करते रहते हैं।
प्रश्न : बारहवें गुणस्थान से आगे वीतरागता में अनंतगुणी वृद्धि क्यों नहीं होती ?
उत्तर : बारहवें गुणस्थान के प्रथम समय में ही वीतरागता परिपूर्ण प्रगट हो गयी है तो अब आगे बढ़ने के लिए कुछ अवकाश बचा ही नहीं है। अतः पूर्ण वीतराग होने पर अनंतगुणी विशुद्धिरूप पूर्ण वीतरागता सतत अखंड और अविचलरूप से अनन्त काल पर्यंत बनी ही रहती है।
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