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अपूर्वकरण गुणस्थान आचार्यश्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५० में अपूर्वकरण गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है ह्र
अंतोमुहत्त कालं, गमिऊण अधापवत्तकरणं तं। पडिसमयं सुज्झंतो, अपुव्वकरणं सम्मिल्लियइ।। अधःप्रवृत्तकरण संबंधी अंतर्मुहूर्त काल पूर्ण कर प्रति समय अनंतगुणी शुद्धि को प्राप्त हुए परिणामों को अपूर्वकरण गुणस्थान कहते हैं। इसमें अनुकृष्टि रचना नहीं होती।
इस गुणस्थान का पूर्ण नाम अपूर्वकरण प्रविष्ट शुद्धिसंयत गुणस्थान है।
भेद - पूर्वोक्त चारित्र मोहनीय की २१ प्रकृतियों के (४ अप्रत्याख्यानावरण, ४ प्रत्याख्यानावरण, ४ संज्वलन, ९ नोकषाय) उपशम तथा क्षय की अपेक्षा से इस गुणस्थान के भी उपशमक और क्षपक - दो भेद होते हैं।
अपूर्वकरण-प्रविष्ट शुद्धिसंयत संबंधी स्पष्टीकरण -
शब्दार्थ - अपूर्वकरण - अ = नहीं, पूर्व = पहले, अपूर्व = अत्यन्त नवीन, करण = परिणाम अर्थात् पूर्व में कभी भी प्रगट नहीं हुए ऐसे अत्यन्त नवीन शुद्ध परिणाम।।
प्रविष्ट = प्रवेश प्राप्त, शुद्धि = शुद्धोपयोग, संयत = स्वरूप में सम्यक्त्या लीन,
चारित्रमोहनीय की २१ प्रकृतियों के उपशम और क्षय में निमित्त होने वाले, पूर्व में अप्राप्त, विशिष्ट वृद्धिंगत, शुद्धोपयोग परिणाम युक्त जीव अपूर्वकरण प्रविष्ट शुद्धिसंयत है।
सम्यक्त्व - द्वितीयोपशम तथा क्षायिक-सम्यक्त्व में से कोई एक ।
अपूर्वकरण गुणस्थान
७७ चारित्र - चारित्र मोहनीय का पूर्ववत (तीव्र स्थान पर मंदतर मात्र परिवर्तन करके छठवें गुणस्थानवत्) क्षयोपशम होने के कारण यहाँ क्षायोपशमिक चारित्र है। तथा उपशम व क्षपक श्रेणी का आरोहक होने से यहाँ क्रमशः उपचार से औपशमिक अथवा क्षायिक चारित्र भी कहा जाता है।
काल - अंतर्मुहूर्त और मरण की अपेक्षा जघन्य काल एक समय ।
गमनागमन - यहाँ से ऊपर की ओर गमन नौवें गुणस्थान में, नीचे की ओर गमन श्रेणी से गिरते समय सातवें में गमन होता है।
मरण के बाद विग्रह गति में चतुर्थ गुणस्थान में भी गमन होता है।
विशेषता - १. प्रतिसमय जीव की पर्याय में अनंतगुणी-विशुद्धि होती है। (यहाँ विशुद्धि का अर्थ वीतरागता एवं पुण्य परिणाम भी लेना)
२. पूर्वबद्ध कर्मों का असंख्यात गुणा स्थितिकांडघात होता है। ३. नवीन स्थितिबंध कम स्थिति-अनुभागवाला होता है।
४. वृद्धिंगत वीतराग परिणाम एवं कषाय की मंदता से पूर्वबद्ध कर्मों का प्रतिसमय असंख्यातगुणा अनुभाग-कांडकघात होता है।
५. प्रतिसमय पूर्वबद्ध कर्मों की गुणश्रेणी निर्जरा होती है।
६. गुण संक्रमण अर्थात् अनेक अशुभ प्रकृतियाँ शुभ में बदल जाती हैं। यह कार्य दसवें गुणस्थान पर्यंत चलता है।
७. भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम असमान (भिन्न-भिन्न) ही होते हैं। गुणस्थान के नाम के अनुसार प्रतिसमय परिणाम अपूर्व-अपूर्व ही होते हैं।
८. एक अर्थात् समान समयवर्ती जीवों के परिणाम समान तथा असमान-दोनों प्रकार के होते हैं।
९. यहाँ उपशम श्रेणीवाले का चढ़ते समय पहले भाग में मरण नहीं होता, अन्य भागों में मरण हो सकता है। उपशम श्रेणी से गिरते समय सभी भागों में मरण संभव है। क्षपक श्रेणीवालों का मरण नहीं, परन्तु चौदहवें गुणस्थान के अंत में निर्वाण ही होता है।