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गुणस्थान- प्रवेशिका काल - मरण की अपेक्षा जघन्य काल एक समय, उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त। जब छठवें गुणस्थान से नीचे के गुणस्थानों में पतन होता है, तब ही उत्कृष्टकाल घटित होता है।
गमनागमन - यहाँ से ऊपर की ओर गमन मात्र सातवें में तथा नीचे की ओर गमन नीचे के पाँचों गुणस्थानों में हो सकता है। सातवें गुणस्थान से ही इसमें आगमन होता है।
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विशेषता – १. गुणस्थान शुद्ध परिणति युक्त शुभोपयोगरूप हैं । यद्यपि यह दशा मुनिजीवन में अवश्यंभावी है, तथापि बंधकारक है। नाटक समयसार में इसे जगपंथ कहा है; क्योंकि यहाँ शुभोपयोग रहता है।
२. आचार्यकृत सभी साहित्य लेखन, उपदेश, दीक्षा- शिक्षा आदि प्रशस्त कार्य इसी गुणस्थान में होते हैं।
३. आहारक आदि ऋद्धियों का उपयोग इसी गुणस्थान में होता है। ४. यहाँ प्रयुक्त प्रमत्त शब्द अन्त दीपक है, अतः यहाँ पर्यन्त के सभी गुणस्थान प्रमत्त ही हैं।
५. अट्ठाईस मूलगुणों का अखंड पालन करना ही सच्चा गुरुपना है। 'मूलगुण' यह शब्द ही हमें बताता है कि गुरुपने के मूलगुण हैं अर्थात् इनके बिना गुरुपना संभव ही नहीं है, जैसे जड़ के बिना वृक्ष नहीं होता । इसतरह अट्ठाईस मूलगुणों की अनिवार्यता आगम, तर्क तथा युक्ति से भी यथार्थ सिद्ध होती है ।
६. जो कोई अट्ठाईस मूलगुणों का आगमानुसार निर्दोष पालन करते हैं, वे सच्चे गुरु हैं; ऐसी परिभाषा चरणानुयोग के शास्त्रों की से मुख्यता करना उचित ही है। सच्चे मुनिपने के विषय को अन्य अपेक्षाओं से भी हमें समझना आवश्यक है। अतः कुछ स्पष्टीकरण करते हैं।
७. अनंतानुबंधी आदि तीन कषाय चौकड़ी के अनुदय के काल ध्यान रहित तथा शुद्ध परिणति सहित अवस्था के समय मुनिराज जिसप्रकार के बाह्य आचरण में प्रवृत्त होते हैं; उस आचरण को अट्ठाईस मूलगुण कहते हैं।
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अप्रमत्तविरत गुणस्थान
आचार्य श्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४५ में अप्रमत्तसंयत गुणस्थान की कर्मोदय सापेक्ष परिभाषा निम्नानुसार दी हैह्र संजलणणोकसायाणुदओ, मंदो जदा तदा होदि । अपमत्तगुणो तेण य, अपमत्तो संजदो होदि ।
संज्वलन कषाय तथा नौ नोकषायों के मंद उदय के समय में अर्थात् निमित्त से प्रमादरहित होनेवाली वीतरागदशा को अप्रमत्तसंयत गुणस्थान कहते है।
आचार्यश्री नेमिचन्द्र ने ही गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४६ में स्वस्थान अप्रमत्त गुणस्थान की ध्यान की मुख्यता से भेदसहित परिभाषा निम्नानुसार भी दी है, जो विशेष महत्त्वपूर्ण है ह्र
णद्वासे सप्रमादो वयगुणसीलोलिमंडिओ णाणी । अणुवसओ अखवओ झाणणिलीणो हु अपमत्तो ॥ जिनके व्यक्त और अव्यक्त सभी प्रकार के प्रमाद नष्ट हो गये हैं; जो व्रत, गुण और शीलों से मंडित हैं, जो निरंतर आत्मा और शरीर के भेदविज्ञान से युक्त हैं, जो उपशम और क्षपक श्रेणी पर आरूढ नहीं हुए हैं और जो ध्यान में लवलीन हैं; उन्हें अप्रमत्तसंयत कहते हैं।
भेद - परिभाषा - इसके दो भेद हैं- स्वस्थान अप्रमत्त, सातिशयअप्रमत्त। सर्वप्रमाद नाशक, व्रत-गुण शील से सहित अनुपशमक, अक्षपक, ध्यान में लीन मुनि दशा अप्रमत्त संयत है। इसी का अपर नाम निरतिशय- अप्रमत्त भी है।
चारित्र मोहनीय की २१ प्रकृतियों के उपशम तथा क्षय में निमित्त अधःप्रवृत्तकरणादि तीन करणों में से प्रथम अधः प्रवृत्तकरण दशा सातिशय अप्रमत्त संयत गुणस्थान है।