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गुणस्थान-प्रवेशिका होने से असंख्यात तिर्यंच अतीन्द्रिय सुख का उपभोग करते हुए पंचम गुणस्थानवर्ती हैं।
कहीं भी सुख का सीधा संबंध व्यक्त वीतरागता से है; बाहा प्रवृत्ति के अनुसार त्याग-ग्रहण से नहीं है।
धर्म (वीतरागता) व्यक्त करने के लिए, धर्म की वृद्धि करने के लिए अथवा धर्म की परिपूर्णता के लिए बाह्य अनुकूलता या प्रतिकूलता अकिंचित्कर है, यह विषय यहाँ स्पष्ट समझ में आ जाता है।
बाहा प्रतिकूल परिकर धर्म प्रगट करने के कार्य में कुछ बाधक होता हो तो नरक में किसी भी जीव को सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होनी चाहिए; लेकिन असंख्यात नारकी सम्यक्त्व की प्राप्ति करते हैं। नव ग्रैवेयक पर्यंत के स्वर्ग के सब देवों को बाहा अनुकूलता के कारण सम्यग्दर्शन होना ही चाहिए, ऐसा नियम नहीं बन सकता; क्योंकि अनेक देव मिथ्यादृष्टि पाये जाते हैं। ___उपसर्ग या परिषह में जकड़े हुए साधु की साधुता नष्ट होनी चाहिए
और उनको उपसर्ग तथा परिषहजयी बनकर केवली होने का अवसर भी नहीं मिलना चाहिए; तथापि अनेक मुनिराज उपसर्ग तथा परिषहजयी होकर अंतरोन्मुख पुरुषार्थ करते हुए केवली होते हैं और अपनी अतीन्द्रिय अनन्तसुखरूप पर्याय को प्रति समय प्रगट कर ही रहे हैं।
धर्म की क्रिया तो आत्मा की अपनी स्वाधीन और स्वतंत्र क्रिया है, उसका बाह्य अन्य द्रव्यों की क्रिया से कुछ भी संबंध नहीं है।
३. यहाँ संयम शब्द आदि-दीपक है। यहाँ से लेकर उपरिम सभी गुणस्थानों में संयम पाया जाता है।
४. असंयम शब्द को अंत दीपक समझना चाहिए; क्योंकि पंचम गुणस्थान से लेकर आगे के गुणस्थानों में असंयम होता ही नहीं। इसे समझने के लिए प्रथम चार गुणस्थानों के साथ असंयम शब्द जोड़कर समझना उपयोगी हो जाता है। जैसेह्न मिथ्यात्व असंयम, सासादनसम्यक्त्व असंयम, मिश्र असंयम आदि ।
प्रमत्तविरत गुणस्थान आचार्यश्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३२ में प्रमत्तविरत गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है ह्र
संजलण-णोकसायाणुदयादो संजमो हवे जम्हा। मलजणणपमादो वि य, तम्हा हु पमत्तविरदो सो।।
जो (तीन कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक) वीतराग परिणाम, सम्यक्त्व और सकल व्रतों से सहित हो; किंतु संज्वलन कषाय और नौ नोकषाय के तीव्र उदय निमित्त, प्रमाद सहित हो; उसे प्रमत्तविरत गुणस्थान कहते हैं। नाम अपेक्षा विचार ह्र
प्रमत्तसंयत, विरत, संयम, सकलसंयम, सकल चारित्र इत्यादि अनेक नाम हैं। मोक्षसाधक मुनिजीवन में यह प्रमत्तसंयत गुणस्थान नियम से होता ही है। छठवें गुणस्थान की प्राप्ति के बिना कोई जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता।
प्रमत्तसंयत का स्पष्टीकरण - प्रमत्त+संयत = प्रमत्तसंयत । प्र = प्रकृष्ट । मत्त = मदयुक्त-असावधान । संयत = संयम।
सकल संयमरूप वीतरागता प्रगट हो जाने से संयत हो जाने पर भी संज्वलन कषायों के उदय में विकथा आदि पंद्रह प्रमादों में प्रवृत्ति होने से स्वरूप में असावधान वृत्ति हो जाने के कारण प्रमत्त संयत है।
सम्यक्त्व - औपशमिक आदि तीनों सम्यक्त्व में से कोई भी एक सम्यक्त्व रहता है।
चारित्र - प्रमत्त गुणस्थान में क्षायोपशमिक चारित्र होता है, वह इस प्रकार है - यहाँ प्रत्याख्यानावरण कषाय के वर्तमानकालीन सर्वघाति स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय, उनका ही भविष्य में उदय आने योग्य स्पर्धकों का सदवस्थारूप उपशम और संज्वलन कषाय और नोकषायों का भूमिका के अनुसार तीव्र उदय होता है। इस प्रकार चारित्र मोहनीय कर्म का क्षयोपशम घटित होता है।