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________________ ५ देशविरत गुणस्थान आचार्य श्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३० में देशविरत गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है ह्न पच्चक्रवाणुदयादो, संजमभावो ण होदि णवरिं तु । थोववदो होदि तदो, देसवदो होदि पंचमओ || प्रत्याख्यानावरण कषाय कर्म के उदय काल में अर्थात् निमित्त से पूर्ण संयमभाव प्रगट नहीं होने पर भी सम्यग्दर्शनपूर्वक, अणुव्रतादि सहित दो कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक व्यक्त होनेवाली वीतराग दशा को देशविरत गुणस्थान कहते हैं। उक्त परिभाषा में “प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय काल में" ऐसा वाक्य है तथा आगे कहा है कि "पूर्ण संयमभाव प्रगट नहीं होने पर भी । " इन कथनों का अर्थ यह हुआ कि प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदयकाल में आंशिक वीतरागता रूप देशसंयम होता है। अणुव्रतादि श्रावक के शुभयोगरूप व्रतों के पालन का भाव प्रत्याख्यानावरण कर्म के उदय का कार्य है। जो कार्य कर्म के उदय का हो वह पुण्य परिणामरूप है, धर्मरूप नहीं हो सकता। अन्य नाम - विरताविरत, संयमासंयम, देशसंयम, देशचारित्र, अणुव्रत इत्यादि । भेद ग्यारह - प्रतिमाओं की अपेक्षा से देशविरति के ग्यारह भेद हैं। वे इसप्रकार - दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याग, दिवामैथुनत्याग (रात्रिभोजन त्याग), ब्रह्मचर्य, आरंभत्याग, परिग्रह त्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्ट आहारत्याग प्रतिमा । उद्दिष्ट आहार त्याग प्रतिमा के भी एक वस्त्रधारी श्रावक और दो देशविरत गुणस्थान ६९ वस्त्रधारी श्रावक ऐसे दो भेद हैं। ऐलक एक वस्त्रधारी श्रावक हैं तथा क्षुल्लक दो वस्त्रधारी श्रावक हैं। इसी प्रतिमा के धारक महिला को आर्जिका कहते हैं। सम्यक्त्व - औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक में से कोई एक । चारित्र - पंचम गुणस्थान में संयमासंयम चारित्र होता है । यहाँ अप्रत्याख्यानावरण कषायों के वर्तमानकालीन सर्वघाति स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय, उनके ही भविष्य में उदय होने योग्य सर्वघाति स्पर्धकों का सदवस्थारूप उपशम तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय रहता है, अतः कर्म का क्षायोपशमिकपना बनता है। काल- जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त । उत्कृष्टकाल मनुष्य की अपेक्षा आठ वर्ष एक अंतर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटिवर्ष है तथा सम्मूर्च्छन तिर्यंच की अपेक्षा एक अंतर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटिवर्ष है। गमनागमन - ऊपर सातवें गुणस्थान में तथा नीचे चौथे, तीसरे, दूसरे व पहले गुणस्थान में गमन होता है। पहले, चौथे और छठवें गुणस्थान से इसमें आगमन होता है। विशेषता - १. सर्वार्थसिद्धि आदि एक भवावतारी देवों के सम्यक्त्व, बालब्रह्मचर्यत्व, द्वादशांगज्ञानत्वादि की उपस्थिति में तथा उनके जनसामान्य पंच पाप तथा स्थूल विषय कषाय, असि-मसि आदि हिंसाजन्य षट् कर्म दिखाई नहीं देने पर भी अंतरंग में एक कषाय चौकड़ी के अभाव में उत्पन्न वीतरागता होने से देशसंयम नहीं है; परन्तु असंयम ही है। और मनुष्य -तिर्यंचों के उपर्युक्त प्रवृत्ति दिखाई देने पर भी अन्तरंग में सम्यग्दर्शन सहित दो कषाय चौकड़ी के अभाव में उत्पन्न वीतरागता विद्यमान होने से देशसंयम है। २. स्वयंभूरमण समुद्र में प्रतिकूल वातावरण में भी शुद्धात्मानुभव
SR No.009452
Book TitleGunsthan Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2014
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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