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अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान
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गुणस्थान-प्रवेशिका चारित्र - सम्यक्त्वाचरण चारित्र का घातक अनन्तानुबंधी-चतुष्क चारित्र मोहनीय कषाय-कर्म का अभाव होने से आंशिक वीतरागतामय सम्यक्त्वाचरण चारित्र (कहीं-कहीं इसी को स्वरूपाचरण-चारित्र भी कहा है) वह होता ही है। तथापि देशचारित्र आदिरूप वीतरागता नहीं होने के कारण अविरति कहते हैं। फिर भी यहाँ सामान्य गृहस्थ योग्य सदाचारी प्रवृत्ति होती ही है।
काल - औपशमिक सम्यक्त्व का काल अन्तर्मुहूर्त ही है। (जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, लेकिन जघन्य काल से उत्कृष्ट काल संख्यात गुणा है। ___क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल ६६ सागर है। तथा ६६ सागर के बाद एक अन्तर्मुहूर्त के लिए मिश्र गुणस्थान में आकर पुनः क्षायोपशमिक के साथ ६६ सागर रह सकता है।
क्षायिक सम्यक्त्व का काल सादि अनन्त।
गमनागमन - यहाँ से ऊपर पाँचवें और सातवें में तथा नीचे तीनों गुणस्थानों (पहले, दूसरे, तीसरे) में गमन होता है।
पहले, तीसरे, पाँचवें तथा छठवें गुणस्थान से यहाँ आगमन होता है।
उपशम श्रेणी की अपेक्षा उपशम श्रेणी के चारों गुणस्थानों में मरण हो जाय तो सीधे चौथे में आता है अर्थात् मरण के अन्त समय पर्यंत तो श्रेणी का वही गुणस्थान रहता है, किन्तु विग्रहगति में प्रथम समय से ही चौथा गुणस्थान हो जाता है।
विशेषता - १. इस गुणस्थान से ही विशिष्ट प्रशस्त-राग के कारण तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारंभ हो सकता है।
२. इस गुणस्थान से ही पारमार्थिक-सुख प्रगट होता है। ३. यहाँ से जीव को सम्यक्त्व के कारण अन्तरात्मा संज्ञा प्राप्त होती है। ४. यहाँ अविरत शब्द अन्त-दीपक है, अतः यहाँ तक सभी गुणस्थान
अविरतरूप ही हैं। जैसे - अविरत मिथ्यात्व, अविरत सासादन सम्यक्त्व, अविरत मिश्र; क्योंकि मिथ्यात्व से लेकर चौथे गुणस्थान पर्यन्त के सब जीव सामान्यतया अविरत ही है; तथापि प्रत्येक की अविरत में महान अन्तर है।
५. मिथ्यात्व के अभाव से अविरत सम्यग्दृष्टि को दृष्टि-मुक्त (श्रद्धा की अपेक्षा) कहते हैं।
६. भव्यत्व शक्ति की अभिव्यक्ति इसी गुणस्थान में होती है।
प्रश्न : सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए शुद्धात्मा के ध्यान को छोड़कर क्या अन्य कोई उपाय भी हो सकता है ? या एक मात्र उपाय शुद्धात्मा का ध्यान ही है ? स्पष्ट खुलासा कीजिए।
उत्तर : जिसप्रकार सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति और उसकी पूर्णता का उपाय एक निज शुद्धात्मा का ध्यान ही है; उसीप्रकार सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का उपाय भी एक निज शुद्धात्मा का ध्यान ही है, अन्य कोई उपाय नहीं है।
सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र ये दोनों भाव आत्माश्रित वीतरागस्वरूप ही हैं और इन दोनों का निमित्तरूप से बाधक कर्म भी एक मोहनीयदर्शनमोहनीय व चारित्रमोहनीय ही है। इसलिए इनकी प्राप्ति का उपाय भी एक आत्माश्रितपना ही है। इसकारण सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का उपाय भी एक निज शुद्धात्मा का ध्यान ही है; अन्य नहीं।
व्रत-तप और सम्यक्त्व के संबंध में मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २६१ का अंश महत्त्वपूर्ण है। “किसी को देवादिक की प्रतीति और सम्यक्त्व युगपत् होते हैं तथा व्रत-तप, सम्यक्त्व के साथ भी होते हैं और पहलेपीछे भी होते हैं। देवादिक की प्रतीति का तो नियम है, उसके बिना सम्यक्त्व नहीं होता; व्रतादिक का नियम नहीं है। बहुत जीव तो पहले सम्यक्त्व; पश्चात् ही व्रतादिक को धारण करते हैं, किन्हीं को युगपत् भी हो जाते हैं।"