SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मिथ्यात्व गुणस्थान मिथ्यात्व गुणस्थान आचार्य श्री नेमिचन्द्र स्वामी ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १५ में मिथ्यात्व गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है ह्र मिच्छोदयेण मिच्छत्तमसद्दहणं तु तच्च-अत्थाणं । एयंत विवरीयं, विणयं संसयिदमण्णाणं॥ दर्शनमोहनीय मिथ्यात्व कर्म के उदय के समय में अर्थात् निमित्त से होनेवाले जीव के अतत्त्वश्रद्धानरूप भाव को मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं। भेद -१ एकान्त, विपरीत, विनय, संशय, अज्ञान - ये मिथ्यात्व के पाँच भेद हैं। २. अगृहीत मिथ्यात्व और गृहीत मिथ्यात्व ये भी २ भेद हैं। अनादिकालीन विपरीत मान्यता को अगृहीत मिथ्यात्व कहते हैं। अनादिकालीन अगृहीत मिथ्यात्व की पोषक नवीन गृहीत विपरीत मान्यताओं को गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं। ३. क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और वैनयिकवादी - ये ४ भेद भी हैं। इनके ही उत्तर भेद ३६३ हैं। शब्दार्थ - मिथ्यात्व शब्द का अर्थ विपरीतता। श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र गुण के विपरीत परिणमन को ही यहाँ “मिथ्यात्व" कहा है। विपरीत = उल्टा। सम्यक्त्व - (मार्गणा की अपेक्षा से) - मिथ्यात्व सम्यक्त्व। चारित्र - मिथ्याचारित्र । यहाँ श्रद्धा विपरीत होने से चारित्र भी मिथ्या ही रहता है। काल - जघन्य-अन्तर्मुहूर्त । उत्कृष्ट - अनादि अनन्त । अभव्य की अपेक्षा से मिथ्यात्व का काल अनादि अनन्त है। भव्य (एक जीव) की अपेक्षा अनादि सांत काल तथा भव्य (नाना जीवों) की अपेक्षा अनादि-अनन्त काल होता है। सादि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा किंचित् न्यून अर्धपुद्गल-परावर्तन। दूरानुदूर भव्य की अपेक्षा अनादि-अनन्त है। पर्याय की अपेक्षा सादि-सान्त काल है। गमनागमन - यहाँ से ऊपर चौथे, पाँचवें या सातवें गुणस्थान में गमन होता है। तथा सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र) मोहनीय कर्म की सत्ता सहित सादि मिथ्यादृष्टि जीव का तीसरे गुणस्थान में भी गमन होता है। छठवें, पाँचवें, चौथे या तीसरे, दूसरे गुणस्थान से मिथ्यात्व गुणस्थान में आगमन हो सकता है। सासादनवाले का आगमन मिथ्यात्व में ही होता है। विशेषताएँ -१. एकेन्द्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यंत तथा लब्ध्यपर्याप्त, (संमूर्च्छन मनुष्य आदि) जीव मिथ्यात्वी ही होते हैं। २. इस गुणस्थानवर्ती सभी जीव बहिरात्मा ही हैं। ३. कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र के सभी उपासक मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। ४. मिथ्यादृष्टि मनुष्य गर्भ से आठ वर्ष पर्यंत मिथ्यात्व नष्ट करने में असमर्थ होता है। संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्तक तथा संमूर्च्छन तिर्यंच अंतर्मुहूर्तकाल पर्यंत मिथ्यात्व नष्ट करने में असमर्थ रहते हैं। देव, नारकी अंतर्मुहूर्त पर्यंत असमर्थ रहते हैं। प्रश्न : मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती साधक किस साधना द्वारा अविरत सम्यक्त्व आदि उपरिम गुणस्थानों को प्राप्त करते हैं ? उत्तर : मिथ्यादृष्टि जीव स्व-पर भेदज्ञानपूर्वक अपने त्रिकाली निज शुद्धात्मा के आश्रयरूप महान अपूर्व पुरुषार्थ से दर्शनमोहादि कर्म का भी अभाव होने से सम्यग्दर्शनादि प्राप्त कर लेते हैं। इसप्रकार मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती साधक उपरिम गुणस्थानों को प्राप्त करते हैं।
SR No.009452
Book TitleGunsthan Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2014
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy