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________________ सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान आचार्य श्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १९ में सासादनसम्यक्त्व गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है ह्र आदिमसम्मत्तद्धा समयादो छावलि त्ति वा सेसे। अणअण्णदरुदयादो णासियसम्मो त्ति सासणक्खो सो ॥ प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अंतर्मुहूर्त काल में से जब जघन्य एक समय या उत्कृष्ट छह आवली प्रमाण काल शेष रहे, उतने काल में अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ में से किसी एक कषाय के उदय में आने से सम्यक्त्व की विराधना होने पर श्रद्धा की जो अव्यक्त अतत्त्वश्रद्धानरूप परिणति होती है, उसको सासन या सासादन गुणस्थान कहते हैं। शब्दार्थ स + आसादन = सासादन। स सहित आसादन = विराधना, विनाश, घात। इसप्रकार सासादन शब्द का अर्थ सम्यक्त्व का नाश करनेवाला होता है। इसका ही अपर नाम सासन भी है। स + आसन = सासन। स = सहित, असन = सम्यक्त्व की विराधना । सम्यक्त्व विराधक परिणाम ही सासन है । सम्यक्त्व विराधक जीव की सम्यक्त्वरूपी रत्न पर्वत-शिखर से पतित मिथ्यात्वरूप भूमि के सन्मुख दशा को सासादन कहते हैं। सम्यक्त्व = (मार्गणा की अपेक्षा) सासादन सम्यक्त्व । चारित्र - मिथ्याचारित्र, क्योंकि यहाँ सम्यग्दर्शन का नाश हो गया है। काल - जघन्य काल एक समय, उत्कृष्ट काल छह आवली । (एक समय से छह आवली पर्यन्त मध्य के सभी विकल्प | ) गमनागमन – यहाँ से मिथ्यात्व गुणस्थान में ही गमन होता है, अन्य किसी भी ऊपर के गुणस्थानों में नहीं । सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान सासादन में - छठवें, पाँचवें, चौथे गुणस्थान से आगमन होता है। विशेषता - ( १ ) इस गुणस्थान में मरण कर नरक नहीं जाता है। (२) तीर्थंकर, आहारकद्विक प्रकृति की सत्ता सहित जीव इस गुणस्थान को प्राप्त नहीं होता । (३) द्वितीय गुणस्थानवर्ती जीव के सासादनसम्यक्त्वरूप भाव / परिणाम को पारिणामिक भाव भी कहते हैं; क्योंकि जीव का जो परिणाम कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम की अपेक्षा से रहित होता है, उसे पारिणामिक भाव कहते हैं। इस परिभाषा के अनुसार सासादन सम्यक्त्वरूप परिणाम दर्शनमोहनीय कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम की अपेक्षा के बिना ही होता है। अतः दर्शनमोहनीयकर्म की अपेक्षा इस दूसरे गुणस्थान के भाव को पारिणामिक भाव भी कहते हैं। मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर चौथे गुणस्थान पर्यंत के चार गुणस्थान दर्शनमोहनीय कर्म की अपेक्षा से हैं। दूसरे गुणस्थान में दर्शनमोहनीय के उदयादि की अपेक्षा नहीं हैं, अतः दर्शनमोहनीय कर्म की अपेक्षा यहाँ पारिणामिकपना घटित होता है। जहाँ जिस अपेक्षा से कथन किया हो, वहाँ उस अपेक्षा से समझ लेना चाहिए। प्रश्न : सासादन गुणस्थानवर्ती जीव विपरीत अभिप्राय से दूषित है; इसलिए उसे सासादनसम्यक्त्व नहीं कहना चाहिए। उत्तर : यहाँ सम्यक्त्व कहने का कारण मात्र यह है कि वह पहले सम्यक्त्वी था; इसलिए भूतनैगमनय की अपेक्षा उसे सम्यक्त्व की संज्ञा बन जाती है। वह काल भी अभी सम्यक्त्व का चल रहा है एवं दर्शनमोहनीय का यहाँ उपशम ही है। जैसे परीक्षार्थी को पेपर देने का समय तीन घंटे का है और कोई विद्यार्थी दो घंटे में पेपर लिखकर घर चला जा तो भी शेष एक घण्टा काल पेपर का काल ही कहा जायेगा। P
SR No.009452
Book TitleGunsthan Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2014
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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