________________
अध्याय तीसरा
गुणस्थान गुणस्थान : भूमिका
हमें/मुझे तो पर्याय में सिद्ध ही बनना है । गुणस्थानातीत जीव की अवस्था को सिद्ध कहते हैं। साध्यरूप सिद्ध अवस्था का यथार्थ ज्ञान के बिना सिद्ध परमेष्ठी का परम सत्य निर्णय नहीं हो सकता । तेरहवें एवं चौदहवें गुणस्थानवर्ती केवली ही अरहंत परमेष्ठी है। अरहंत परमेष्ठी को जानना हो तो तेरहवें एवं चौदहवें गुणस्थान का ज्ञान करना अति आवश्यक है।
दिव्यध्वनि से प्रसारित तत्त्व-प्ररूणा को ही शास्त्र कहते हैं। दिव्यध्वनि सयोगकेवली की ही होती है। अतः सम्यक् शास्त्र के निर्णय के लिए भी तेरहवें एवं चौदहवें गुणस्थान को जानना जरूरी है। ___ सच्चे गुरु छठवें-सातवें गुणस्थान में झूलनेवाले होते हैं। यदि हमें सच्चे गुरु को सही रीति से जानना हो तो छठवें-सातवें गुणस्थान के स्वरूप का जानना अपरिहार्य है। इतना ही नहीं मोक्षमार्ग को प्रगट करना हो तो भी गुणस्थान की जानकारी हमें करना ही चाहिए। ऐसा ही भाव पण्डित बनारसीदासजी ने नाटक समयसार में स्पष्ट किया है -
इह विचारि संक्षेप सौं, गुणथानक रस चोज । ___ वरनन करे बनारसी, कारन शिवपथ खोज ।।
अर्थात - यह सोचकर पण्डित बनारसीदासजी शिवमार्ग खोजने में कारणभूत गुणस्थानों का संक्षिप्त वर्णन करते हैं।
इसलिए हम गुणस्थान का ज्ञान करने का प्रयास करते हैं।
आचार्यश्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार गाथा ३ व ८ में गुणस्थान की परिभाषा शास्त्रानुसार आगे दी है ह्न
गुणस्थान भूमिका संखेओ ओघोत्ति य, गुणसण्णा सा च मोहजोगभवा । जेहिं दु लख्खिज्जन्ते, उदयादिसु संभवेहिं भावहिं। जीवा ते गुणसण्णा, णिदिट्ठा सव्वदरसीहिं ।।
मोह और योग के निमित्त से जीव के श्रद्धा और चारित्र गुण की होनेवाली हीनाधिक अवस्था को गुणस्थान कहते हैं।
गुणस्थान के चौदह भेद निम्न प्रकार हैं ह्र
१. मिथ्यात्व, २. सासादनसम्यक्त्व, ३. सम्यग्मिथ्यात्व/मिश्र, ४. अविरतसम्यक्त्व, ५. देशविरत, ६. प्रमत्तविरत, ७. अप्रमत्तविरत, ८. अपूर्वकरण, ९, अनिवृत्तिकरण, १०. सूक्ष्मसांपराय, ११. उपशांतमोह, १२. क्षीणमोह, १३. सयोगकेवली, १४. अयोगकेवली।
चौदह गुणस्थानों के नाम आचार्यश्री नेमिचंद्र रचित गोम्मटसार जीवकाण्ड की ९ व १० गाथाओं में हैं ह्र
मिच्छो सासण मिस्सो, अविरदसम्मो य देसविरदो य। विरदा पमत्त इदरो, अपुव्व अणियट्टि सुहमो य॥ उवसंत खीणमोहो सजोगकेवलिजिणो अजोगी य।
चउदस जीव समासा कमेण सिद्धा य णादव्वा ।। मोह और योग की मुख्यता से गुणस्थानों का विभाजन ह्र
१. पहले गुणस्थान से चौथे गुणस्थान पर्यंत चार गुणस्थान दर्शनमोहनीय कर्म के उदय-अनुदय की मुख्यता से हैं।
२. पाँचवें से बारहवें गुणस्थान पर्यंत आठ गुणस्थान चारित्र मोहनीय कर्म के उदय-अनुदय की मुख्यता से हैं।
३. तेरहवाँ गुणस्थान केवलज्ञान और योग - इन दोनों की सद्भाव की मुख्यता से है।
४. चौदहवाँ गुणस्थान केवलज्ञान का सद्भाव और योग का असद्भाव की मुख्यता से है।