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महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर सातवें गुणस्थानवर्ती रहते हैं अथवा ये महापुरुष आठवें गुणस्थान से उपरिम गुणस्थान में भी विराजते हैं। इसलिए गुणस्थान के ज्ञान से ही सच्चे साधु का स्पष्ट ज्ञान होता है।
१२६. प्रश्न : गुणस्थान के ज्ञान से क्या मात्र देव, शास्त्र, गुरु का ही यथार्थ निर्णय होता है अथवा हमें व्यक्तिगत भी कुछ लाभ होता है ?
उत्तर : क्यों नहीं ? देव-शास्त्र-गुरु के सम्बन्ध में भी जो सच्चा निःशंक निर्णय एवं यथार्थ प्रतीति होती है, यह भी तो हमें ही व्यक्तिगत लाभ होता है, देव-शास्त्र-गुरु को नहीं।
देव तथा गुरु के गुणस्थान की जानकारी के साथ हमें अपना स्वयं का गुणस्थान कौनसा है ? विराधक गुणस्थान से साधक गुणस्थानों की प्राप्ति अर्थात् मोक्षमार्ग की प्राप्ति कैसे होगी? तथा हमें क्या करना आवश्यक है ? ह्र इन सबका ज्ञान होता है।
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गुणस्थान-प्रवेशिका • क्षपक श्रेणी के किसी भी गुणस्थान में मरण नहीं होता। • उपशम श्रेणी के आठवें गुणस्थान के प्रथम भाग में भी मरण नहीं होता।
• पाँचवें गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान पर्यंत के सर्व गुणस्थानों में जीव का मरण तो हो सकता है; लेकिन पाँचवें से ग्यारहवें गुणस्थान पर्यंत के गुणस्थानों के परिणामों को साथ लेकर विग्रह-गति में नहीं जाता । मरण होते ही विग्रहगति के प्रथम समय में चौथा गुणस्थान हो जाता है।
१२३. प्रश्न : संसार में किन-किन गुणस्थानों का विरह नहीं होता?
उत्तर : पहला, चौथा, पाँचवाँ, छठवाँ, सातवाँ और तेरहवाँ इन गुणस्थानों का संसार में कभी भी विरह नहीं होता अर्थात् इन गुणस्थानों में जीव सदा विद्यमान रहते ही हैं।
१२४. प्रश्न : अप्रतिपाति गुणस्थान कौन-कौन से हैं।
उत्तर : बारहवाँ, तेरहवाँ, चौदहवाँ एवं क्षपकश्रेणी का आठवाँ, नौवाँ और दसवाँ ये गुणस्थान अप्रतिपाति हैं। अर्थात् इन गुणस्थानों से जीव नीचे न जाकर ऊपर ही ऊपर चढ़ते हैं। गिरने का नाम प्रतिपात और नहीं गिरने का नाम अप्रतिपात कहलाता है।
१२५. प्रश्न : गुणस्थान के ज्ञान से क्या लाभ है ?
उत्तर : १) १३ वें व १४ वें गुणस्थानवर्ती ही अरहंत भगवान होते हैं । गुणस्थानातीत शुद्ध आत्मा ही सिद्ध परमात्मा कहलाते हैं। इसतरह गुणस्थान के ज्ञान से ही सच्चे अर्थात् वीतराग एवं सर्वज्ञ भगवान का पक्का निर्णय होता है।
२) तेरहवें गुणस्थानवर्ती अरहंत भगवान के परम औदारिक शरीर के सर्वांग से दिव्यध्वनि खिरती है। दिव्यध्वनि से ही यथार्थ तत्त्व स्पष्ट होता है। दिव्यध्वनि का विषय ही सच्चे शास्त्र में लिपिबद्ध रहता है। अतः गुणस्थान के ज्ञान से ही सच्चे शास्त्र/तत्त्व की जानकारी प्राप्त होती है।
३) तीन कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक व्यक्त वीतरागता प्रगट करके प्रचुर स्वसंवेदन के आनंद के भोगी ही सच्चे गुरु होते हैं। ऐसे गुरु छठवें
प्रश्न : वस्तु के द्रव्यस्वभाव में अशुद्धता नहीं है तो पर्याय में अशुद्धता कहाँ से आती है?
उत्तर : वस्तु 'द्रव्य' और 'पर्याय' ऐसे दो स्वभाव वाली है। उनमें से द्रव्यस्वभाव में अशुद्धता नहीं है, किन्तु पर्याय का स्वभाव 'शुद्ध' और 'अशुद्ध' ऐसे दो प्रकार का है - अर्थात् पर्याय की अशुद्धता द्रव्य स्वभाव में से आई नहीं है; वह तो तत्समय की पर्याय का ही भाव है, द्वितीय समय में उस पर्याय का व्यय होने पर वह अशुद्धता भी मिट जाती है।
पर्याय की शुद्धता और अशुद्धता के सम्बन्ध में नियम यह है कि जब पर्याय द्रव्याश्रव से परिणमन करती है, तब शुद्ध और जब पराश्रय से परिणमन करती है तब अशुद्ध होती है; परन्तु वह अशुद्धता न तो पर में से ही आई है और न द्रव्यस्वभाव में से ही आई है।
- ज्ञानगोष्ठी, पृष्ठ-१६०