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________________ ५४ गुणस्थान- प्रवेशिका अशुद्धोपयोग से मुक्त होकर मात्र स्वद्रव्यानुसार परिणति को ग्रहण करता है; वह शुद्धोपयोग है। (प्रवचनसार गाथा १५९ की टीका) २. इष्ट-अनिष्ट बुद्धि के अभाव ज्ञान ही में उपयोग लागै; ताको शुद्धोपयोग कहिए । सोही चारित्र है। (जयचंदजी छाबड़ा मोक्षपाहुड ७२ गाथा) ३. चित्तनिरोध, शुद्धोपयोग, साम्य, स्वास्थ्य, समाधि और योग ये सर्व शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं। (पद्मनंदि पंचविंशतिका, गाथा-६४ ) ४. उपयोगरूप (ज्ञान-दर्शन) वीतरागता को शुद्धोपयोग कहते हैं । शुद्धोपयोग के संबंध में अत्यंत संतुलित और स्पष्ट भाव पण्डित टोडरमलजी ने मोक्षमार्गप्रकाशक शास्त्र के पृष्ठ २८६ पर दिया है ह्र "करणानुयोग में तो रागादि रहित शुद्धोपयोग यथाख्यात चारित्र होने पर होता है, वह मोह के नाश से स्वयमेव होगा; निचली अवस्थावाला (बारहवें क्षीणमोह और ग्यारहवें उपशांत मोह गुणस्थान से नीचे के गुणस्थानवाले) शुद्धोपयोग का साधन कैसे करे ? तथा द्रव्यानुयोग में शुद्धोपयोग करने का ही मुख्य उपदेश है। इसलिए वहाँ छद्मस्थ जिस काल में बुद्धिगोचर भक्ति आदि व हिंसा आदि कार्यरूप परिणामों को छोड़कर (श्रावक चौथे-पाँचवें गुणस्थानवर्ती साधक) आत्मानुभवनादि कार्यों में प्रवर्ते, उस काल उसे शुद्धोपयोगी कहते हैं। यद्यपि यहाँ केवलज्ञानगोचर सूक्ष्म रागादिक हैं; तथापि उसकी विवक्षा यहाँ नहीं की; अपनी बुद्धिगोचर रागादिक छोड़ता है, इस अपेक्षा से उसे चौथे, पंचमादि गुणस्थानों में शुद्धोपयोगी कहा है।” मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ क्रमांक २८५ पर कहा है..." धर्मानुरागरूप परिणाम वह शुभोपयोग, पापानुरागरूप व द्वेषरूप परिणाम वह अशुभोपयोग और राग-द्वेषरहित परिणाम वह शुद्धोपयोग ।” ११८. प्रश्न : शुद्ध परिणति किसे कहते हैं ? उत्तर : शुद्ध शब्द का अर्थ मोह, राग, द्वेष आदि विकारी भावों से रहित ऐसा वीतरागरूप परिणाम | महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर • आत्मा के चारित्र गुण की शुद्ध पर्याय को शुद्धपरिणति कहते हैं। बुद्धिपूर्वक शुभाशुभ उपयोग के काल में उपयोग रहित चारित्र गुण की वीतराग अवस्था को शुद्ध परिणति कहते हैं । • ११९. प्रश्न: अधःकरणादि तीन करण कितने स्थान पर होते हैं ? उत्तर : औपशमिक एवं क्षायिक सम्यक्त्व के लिए, अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क की विसंयोजना के लिए और चारित्रमोहनीय के २१ प्रकृतियों की उपशमना तथा क्षपणा करने के लिए अधःकरणादि तीनों करण होते हैं। १२०. प्रश्न : क्या कर्मों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम के निमित्त से शुद्ध भाव होते हैं अथवा आत्मा के शुद्ध भावों से कर्मों के क्षयादि होते हैं ? उत्तर : दोनों कथन अपनी-अपनी अपेक्षा से सही हैं। पहला कथन कर्म की ओर से निमित्त की मुख्यता से किया गया है तथा दूसरा कथन जीव के भावों की ओर से उपादान की मुख्यता से किया गया है। • कर्म के उपशमादि कार्य और जीव के औपशमिकादिक भाव एक ही समय में होते हैं; इसलिए दोनों कथनों का भाव एक ही है। • वास्तविक देखा जाय तो पुद्गल कर्मों में उत्पाद-व्यय पुद्गल के उपादान से होता है और आत्म-परिणामों में उत्पाद-व्यय आत्मरूप उपादान से होता है। दोनों कथन अपनी-अपनी अपेक्षा से सही हैं। • अपराध मात्र जीव का है, पुद्गल अर्थात् कर्म का नहीं । अपराध अभाव भी जीव ही करता है। इसलिए जीव को ही उपदेश दिया जाता है। १२१. प्रश्न : विग्रहगति में आत्मा कौन-कौन से गुणस्थानों में होता है ? किन गुणस्थानों के परिणामों के साथ जीव परभव में जाता है ? उत्तर: प्रथम, द्वितीय एवं चतुर्थ गुणस्थान के परिणामों के साथ जीव परभव में जाता है। अर्थात् विग्रह गति में ये तीन ही गुणस्थान होते हैं। १२२. प्रश्न : कौन से गुणस्थान में जीव की मृत्यु नहीं होती ? उत्तर : तीसरे, बारहवें एवं तेरहवें गुणस्थान में जीव की मृत्यु नहीं होती। कहा भी है ह्र मिश्र, क्षीण, सजोग तीन में मरन न पावै ।
SR No.009452
Book TitleGunsthan Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2014
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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