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________________ गुणस्थान- प्रवेशिका नरक - स्वर्गादिक के ठिकाने पहिचान कर पाप से विमुख होकर धर्म में लगते हैं। तथा ऐसे विचार में उपयोग रम जाये तब पाप प्रवृत्ति छूटकर स्वयमेव तत्काल धर्म उत्पन्न होता है; उस अभ्यास से तत्त्वज्ञान की भी प्राप्ति शीघ्र होती है। तथा ऐसा सूक्ष्म यथार्थ कथन जिनमत में ही है, अन्यत्र नहीं है; इसप्रकार महिमा जानकर जिनमत का श्रद्धानी होता है। १०६. प्रश्न : तत्त्वज्ञानी जीवों को करणानुयोग के अभ्यास से क्या प्रयोजन है ? ५२ उत्तर : जो जीव तत्त्वज्ञानी होकर इस करणानुयोग का अभ्यास करते हैं, उन्हें यह उसके विशेषणरूप भासित होता है। इस अभ्यास से तत्वज्ञान निर्मल होता है। १०७. प्रश्न: संवर किसे कहते हैं ? उत्तर : निज स्वरूप के श्रद्धान-ज्ञान- स्थिरता के द्वारा मोह-रागद्वेष परिणामों के निरोधपूर्वक शुभाशुभ कर्मों के निरोध को संवर कहते हैं। शुद्धि / वीतरागता की उत्पत्ति को संवर कहते हैं । १०८. प्रश्न: निर्जरा किसे कहते हैं ? उत्तर : संवरपूर्वक विशिष्ट स्वरूपस्थिरता से कर्मों के क्षरण ( खिरने ) को निर्जरा कहते हैं। शुद्धि / वीतरागता की वृद्धि को निर्जरा कहते हैं । १०९. प्रश्न : योग किसे कहते हैं ? उत्तर : कर्मों के ग्रहण में निमित्तरूप जीव के प्रदेशों की परिस्पन्दनरूप पर्याय को योग कहते हैं। ११०. प्रश्न : योग के कितने भेद हैं ? उत्तर : योग के दो भेद हैं ह्न १. भावयोग, २. द्रव्ययोग । १११. प्रश्न : भावयोग किसे कहते हैं ? उत्तर : कर्म-नोकर्म के योग्य पुद्गलमय कार्मण वर्गणाओं को ग्रहण करने में निमित्तरूप आत्मा की शक्तिविशेष को भावयोग कहते हैं। ११२. प्रश्न : द्रव्ययोग किसे कहते हैं ? महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर उत्तर : भावयोग के कारण से आत्मा के प्रदेशों का जो सकम्प होना, सो द्रव्ययोग है। ११३. प्रश्न: अन्य अपेक्षा योग के कौन-कौनसे और कितने भेद हैं ? उत्तर : कषाययोग और अकषाययोग ह्न ये दो भेद हैं। • आलम्बन की अपेक्षा से मनोयोग, वचनयोग और काययोग ऐसे तीन भेद होते हैं। • मनोयोग के ४, वचनयोग के ४ और काययोग के ७ ऐसे निमित्त की अपेक्षा से १५ भेद भी होते हैं। • वास्तविकरूप से देखा जाय तो योग एक ही प्रकार का है। ११४. प्रश्न: गमनागमन का क्या अर्थ है ? उत्तर : गमन का अर्थ जाना, आगमन का अर्थ है आना । • जीव के एक गुणस्थान से दूसरे गुणस्थान में जाने-आने के अर्थ में गमनागमन शब्द का प्रयोग किया जाता है। (गो.क. का. गाथा ५५६ से ५५९) ११५. प्रश्न : शुभोपयोग किसे कहते हैं ? उत्तर : जो उपयोग अर्थात् ज्ञान दर्शन, परम भट्टारक देवाधिदेव परमेश्वर ऐसे अरहंत, सिद्ध तथा साधु की श्रद्धा करने में व समस्त जीव समूह की अनुकंपा का आचरण करने में प्रवृत्त है, वह शुभोपयोग है। (प्रवचनसार गाथा - १५७) ११६. प्रश्न : अशुभोपयोग किसे कहते हैं ? उत्तर : जो उपयोग अर्थात् ज्ञान-दर्शन परम भट्टारक देवाधिदेव परमेश्वर ऐसे अरहंत, सिद्ध तथा साधु के अतिरिक्त अन्य उन्मार्ग की श्रद्धा करने में तथा विषय, कषाय, कुश्रवण, कुविचार, कुसंग और उग्रता का आचरण करने में प्रवृत्त है, वह अशुभोपयोग है। (प्रवचनसार गाथा - १५ की टीका ) ११७. प्रश्न : शुद्धोपयोग किसे कहते हैं ? उत्तर : १. जो उपयोग अर्थात् ज्ञान-दर्शन परद्रव्य में मध्यस्थ होता हुआ परद्रव्यानुसार परिणति के आधीन न होने से शुभ तथा अशुभरूप
SR No.009452
Book TitleGunsthan Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2014
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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