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गागर में सागर
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इसप्रकार यहाँ ध्यान के ध्येय एवं श्रद्वान के श्रद्धेय अर्थात् सम्यग्दर्शन के विषयभूत भगवान आत्मा को शाश्वत सर्वज्ञस्वभावी एवं सर्वशुद्ध बताकर उसके ही दर्शन करने की, उसका ही ज्ञान करने की एवं उसमें ही जम जाने की, रम जाने की पावन प्रेरणा दी गई है ।
भाई ! तेरा आत्मा आज भले ही मलिन दशा में हो; पर स्वभावदृष्टि से देखने पर उसमें मलिनता का प्रवेश भी नहीं हुआ है; वह तो शुद्ध है, सर्वांग शुद्ध है । जिसप्रकार कीचड़ में पड़ा हुआ सोना कीचड़ नहीं हो जाता, सोना ही रहता है; उसीप्रकार मोह-राग-द्वेषादि विकारों के मध्य स्थित आत्मा भी विकाररूप या विकारी नहीं हो जाता, शुद्ध ही रहता है ।
जिसप्रकार सोने में पीतलादि धातुओं का संयोग हो गया हो, तथापि सोना अपना सोनापन नहीं छोड़ देता, वह तो सोना ही रहता है, उसीप्रकार अनेक संयोगों के मध्य पड़ा भगवान ग्रात्मा अशुद्ध नहीं हो जाता, संयोगरूप नहीं हो जाता, असंयोगो हो रहता है, शुद्ध ही रहता है ।
जड़ के संयोगों में पड़ा भगवान आत्मा जड़ नहीं हो जाता, अपितु सर्वज्ञस्वभावी ही रहता है। जिसप्रकार एकक्षेत्रावगाही होने पर भी स्वर्ण पीतल नहीं हो जाता, उसीप्रकार एकक्षेत्रावगाही रहने पर भी जड़ शरीर चेतन नहीं हो जाता और सर्वज्ञस्वभावी भगवान आत्मा जड़ नहीं हो जाता ।
भगवान ग्रात्मा तो शुद्ध है, सर्वशुद्ध है, उसे शुद्ध होने के लिए किसी परपदार्थ की रंचमात्र भी अपेक्षा नहीं है ।
भगवान आत्मा के इस शुद्धस्वभाव को हमने अनादि से प्राजतक नहीं पहिचाना, इस कारण यह अशुद्ध हो गया हो - यह बात भी नहीं है । यदि कोई हीरे की कीमत न जाने तो हीरा कम कीमती नहीं हो जाता । उसकी कीमत जो है, सो तो हैं ही ।
प्रसिद्ध कहावत है कि " दर्जी को हीरा मिला, सुई पोवना नाम" । किसी दर्जी को अनायास ही कहीं पड़ा हुआ हीरा मिल गया । वह उसके प्रकाश में सूई में डोरा डालने का काम करने लगा और उसका नाम भी उसने "सुई पोवना" रख लिया । "सुई पोवना" माने सुई