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दौलतरामजी ने कहा है
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गाथा ५६ पर प्रवचन
"कोटि ग्रन्थ को सार यही है, ये ही जिनवारणी उच्चरो है । दौल ध्याय अपने प्रातम को, मुक्तिरमा तोय बेग वरे है ।।"
भाई, करोड़ों ग्रन्थों का सार, समस्त जिनवाणी का सार, एक भगवान आत्मा ही है । अतः उसका ध्यान करना ही एक मात्र ऐसा कार्य है, जिससे मुक्ति की प्राप्ति होती है । निज भगवान आत्मा का ध्यान ही दुखों से मुक्ति का वास्तविक उपाय है ।
जिसप्रकार दूध का सार घी है, तिल का सार तेल है; उसीप्रकार समस्त जिनवाणी का सार भगवान आत्मा है, सम्पूर्ण ज्ञान का सार एकमात्र आत्मा है । अतः यह श्रात्मा ही समयसार है और यह आत्मा ही ज्ञानसमुच्चयसार है ।
यह भगवान आत्मा ही सम्पूर्ण श्रुतज्ञान का सार है । द्वादशांग का प्रतिपाद्य एक मात्र भगवान आत्मा ही है । यह बात ५८वीं गाथा में कही है । इसके उपरान्त सम्यग्दर्शन के विषयभूत शुद्धात्मा की चर्चा करते हुए तारणस्वामी ५६वीं गाथा में लिखते हैं :
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" शुद्धं च सर्व शुद्धं च सर्वज्ञं शाश्वतं पदं ।
शुद्धात्मा शुद्ध ध्यानस्य शुद्ध सम्यग्दर्शनम् ||५६ ।। सर्वज्ञस्वभावी शुद्धात्मा शाश्वत है, शुद्ध है, सर्वशुद्ध है, शुद्धध्यान का विषय है । इसके ही आश्रय से शुद्ध सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है ।" कितना स्पष्ट लिखा है कि शुद्ध ध्यान का विषय शुद्धात्मा शुद्ध है, सर्वशुद्ध है, शाश्वत है, सर्वज्ञस्वभावी है - यह प्रतीति ही शुद्ध सम्यग्दर्शन है ।
देखो, तारणस्वामी का स्वभाव की शुद्धता पर कितना बल है ! इस गाथा में पाँच बार "शुद्ध" शब्द का प्रयोग हुआ है ।
यहाँ शुद्धात्मा को शुद्ध कहकर संयोग और संयोगी भावरूप विकारों का निषेध किया है और शाश्वत कहकर क्षणभंगुर पर्यायों से पृथक् बताया है । "सर्वज्ञ" पद द्वारा मात्र ज्ञानस्वभावो ही नहीं, अपितु सर्वज्ञानस्वभावी है - यह बताया गया है । 'सर्वज्ञानस्वभावी' से तात्पर्य 'सर्व पदार्थों को जानने के स्वभाववाला' है ।