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ज्ञानसमुच्चयसार गाथा ५६ पर प्रवचन
(मंगलाचरण) जो मोह माया मान मत्सर मदन मर्दन वीर हैं। जो विपुल विघ्नों बीच में भी ध्यान धारण धीर हैं। जो तरण-तारण भवनिवारण भवजलधि के तीर हैं। वे वन्दनीय जिनेश तीर्थंकर स्वयं महावीर हैं।
यह पाँच सौ वर्ष पुराना "जानसमुच्चयसार" नामक शास्त्र है । इसे प्राध्यात्मिक संत श्री तारणस्वामी ने बनाया था। आज हम इसकी ५९वीं गाथा पर चर्चा करेंगे।
___ "जानसमुच्चयसार" का अर्थ है - सम्पूर्ण ज्ञान का निचोड़ । जिनेन्द्र भगवान की द्वादशांग वागी में जो पाया है, तारणस्वामी ने उसका सार ही निचोड़ कर मानो इसमें भर दिया है।
समुच्चय अर्थात सामूहिक । चौबीस तीर्थंकरों की जो सामूहिक पूजन हम करते हैं, उसे समुच्चय पूजन कहा जाता है । सामुहिक का अर्थ 'हम सब मिलकर करते हैं - यह नहीं समझना । चोवीस तीर्थंकरों में प्रत्येक की पृथक्-पृथक् पूजन न करके चौबीमों को एक साथ जो एक ही सामूहिक पूजन हम करते हैं, उसे ही समुच्चय पूजन कहा जाता है।
इसीप्रकार यहाँ कहा गया है कि समस्त जान का जो सार है, वही जानसमुच्चयमार है । द्वादशांग वाशी में जो पात्महितकारी वात कही गई है, वह वात ही इस जानसमुच्चयसार ग्रन्थ में भी कही गई है । इसी कारण इस ग्रन्थ का नाम ताररणस्वामी ने जानममुच्चयसार रखा है।
एक प्रकार से ममयमार का दूसरा नाम ही जानसमुच्चयसार है। जिम त्रिकाली ध्रव परमात्मा की वात समयसार में मुख्यरूप से कही गई है, उसी निकाली ध्रव भगवान प्रात्मा की बात इस जानसमुच्चयसार में भी मुख्यम्ग में कही गई है।