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गाथा ५६ पर प्रवचन
पोने का पत्थर । वह क्या जाने कि यह हीरा क्या वस्तु है ? सम्पूर्ण जीवन की दरिद्रता समाप्त हो जावे - ऐसी यह निधि है, पर उसकी पहिचान बिना हीरा का मालिक होने पर भी जीवनभर दरिद्रता का दुःख भोगता रहता है।
यही हालत हमने निज भगवान आत्मा की बना रखी है। जिस भगवान आत्मा के दर्शन मात्र से सम्पूर्ण दुखों का नाश हो सकता है, अनन्त अतीन्द्रियानन्द की शाश्वत प्राप्ति हो सकती है, उसी भगवान आत्मा को दर-दर का भिखारी बना रखा है। चाय बिना चले नहीं, पानी बिना चले नहीं । सुवह उठते ही विस्तर पर चाय चाहिए, वीड़ी चाहिए, पान-तम्बाकू चाहिए । इनके विना इसका पेट ही साफ नहीं होता है। गुरुदेवश्री फरमाते थे कि इस तीन लोक के नाथ को वीड़ी की तलफ लगे तो एक माचिस की तीली माँगते कहीं भी देखा जा सकता है। स्वयं करोड़पति हो, पर जिससमय तलफ लगे, उससमय बीड़ी तो हो, पर माचिस न हो तो क्या करे ?
ऐसी स्थिति होने पर भी आचार्यदेव कहते हैं कि चिन्ता की कोई बात नहीं है । प्रसन्नता की बात तो यह है कि प्रात्मवस्तु में अभीतक कोई खरावी नहीं हुई। हीरे की कीमत नहीं समझे जाने के कारण हीरे की कोई हानि नहीं होती, अपितु नहीं समझनेवाले ही घाटे में रहते हैं । इसीप्रकार भगवान प्रात्मा को नहीं समझने के कारण भगवान प्रात्मा में कोई हानि नहीं होती, अपितु उसे नहीं समझनेवाली पर्याय ही अज्ञानरूप रहती है, मिथ्याज्ञानरूप रहती है।
प्रश्न :-आजतक जो हीरे की अवमानना हई, भगवान आत्मा की अवमानना हुई, उसकी क्षतिपूर्ति के लिए क्या करना चाहिए?
उत्तर :-हीरे और भगवान प्रात्मा में कुछ नहीं करना है; क्योंकि उनमें कुछ हुआ ही नहीं है, उनकी कुछ क्षति हुई ही नहीं है । क्षति तो न जाननेवाले की हुई है, गलत जाननेवाले की हुई है ; न जाननेवाली और गलत जाननेवाली पर्याय में हुई है। अतः हारे को कुछ नहीं करना है, भगवान यात्मा को भी कुछ नहीं करना है । हीरा और भगवान यात्मा में भी कुछ नहीं करना है, उन्हें तो मात्र जानना है; उनका सही रूप,। उनकी सही कीमत पहिचाननी है, मात्र उनकी महिमा मे परिचित होना है। इससे अधिक कुछ नहीं करना है।