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एक इन्टरव्यू : डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल से
89 अपेक्षित होगा स्वतः हो जाएगा। जहाँ तक आज के सन्दर्भ में द्रव्यपूजा और भावपूजा के सामंजस्य की कमी दिखाई देती है वह तो स्पष्ट है, उसके सम्बन्ध में क्या कहना।
प्रश्न - श्री कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित तिरूक्कुरल में कहा है कि जो कुछ भी सीखो, संशय रहित सीखो, फिर उसी के अनुसार बर्तो । यहाँ कुछ लोगों का प्रबल प्रचार है कि आप लोग केवल सीखी हुई चीज को वमन करने वाले हैं, तदनुसार चलने वाले नहीं हैं। इस सम्बन्ध में आपका विचार क्या है?
उत्तर - यह तो आप हमारे जीवन को नजदीक से देखकर ही निर्णय कर सकते हैं। हम अपने जीवन के सम्बन्ध में आपसे क्या कहें? जिनवाणी में वर्णित अव्रती श्रावक (अविरत सम्यग्दृष्टि) के आचरण की दृष्टि से हमारे जीवन में क्या कमी है ? -- यह बताइये तथा उन कहने वालों के जीवन से भी हमारे जीवन को मिलाकर देखिए तभी आपको वस्तुस्थिति का सम्यग्ज्ञान हो सकेगा। यदि कोई यह समझता हो कि वीतरागता में धर्म बताने वाले और सर्वज्ञता का स्वरूप स्पष्ट करने वाला वीतरागी और सर्वज्ञ ही होना चाहिए, और जो अभी सर्वज्ञता और वीतरागता प्राप्त नहीं कर पाये हैं, उन्हें राग में धर्म बताना चाहिए तो उनकी बुद्धि पर तरस आने के सिवाय और क्या हो सकता है?
प्रश्न – पंचेन्द्रिय के भोग में सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि में अन्तर है; पर बाह्यदृष्टि से दोनों में अन्तर मालूम नहीं कर सकते। यह ठीक है ?
उत्तर – सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के भोगों में सूक्ष्मदृष्टि से देखने पर ज्ञानी को अन्तर स्पष्ट दिखाई देता है; पर स्थूलदृष्टि वाले अज्ञानी को अन्तर दिखाई नहीं देता।
प्रश्न - क्या आप ऐसा मानते है कि वर्तमान में कोई निर्ग्रन्थ मुनिधर्म को स्वीकार नहीं कर सकते ? |
उत्तर - नहीं, जब शास्त्रों में स्पष्ट लिखा है कि पंचमकाल के अन्त तक मुनि-आर्यिका और श्रावक-श्राविका होंगे तो यह कैसे स्वीकार किया जा सकता है कि वर्तमान में कोई निर्ग्रन्थ मुनिधर्म को स्वीकार नहीं कर सकता।