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एक इन्टरव्यू : डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल से पाता है। इसी को देखिए न यह महाराष्ट्र का शिविर ५ वर्ष के निरन्तर आग्रह के बाद इस वर्ष लग पाया है। तमिल प्रान्त में प्रचारक भेजने में सबसे बड़ी कठिनाई भाषा की ही है । यह कमी तो तभी पूरी हो सकती है, जब कुछ तमिल भाषी लोग भी जैनदर्शन के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से महाविद्यालय में प्रवेश लें। मेरा आपसे पुनः यही कहना है कि आप तमिल प्रान्त के छात्रों को महाविद्यालय में प्रवेश दिलाएँ।
प्रश्न - आप जो शिविर चलाते हैं, क्या इसकी पत्राचार के माध्यम से भी शिक्षा प्रदान करने की कोई व्यवस्था संभव है, जिससे हम अपनी मातृभाषा में तत्त्व सीख व समझ सकें ?
उत्तर - यह संभव नहीं है; क्योंकि इसमें प्रायोगिक शिक्षण (प्रेक्टिकल टीचिंग) अधिक है; जो पत्राचार द्वारा संभव नहीं है। आप स्वयं यहाँ देख ही रहे हैं कि प्रायोगिक शिक्षण कितना अधिक हो रहा है, अब आप स्वयं ही बताइये कि क्या यह पत्राचार द्वारा संभव है? __प्रश्न - अभी हाल ही में आपकी दो पुस्तकें अंग्रेजी में प्रकाशित हुई हैं, पढ़कर बहुत प्रभावित हुआ। इसीप्रकार अन्य पुस्तकें भी प्रकाशित होना चाहिए। आपकी प्रतिपादन शैली वर्तमान नवयुवकों को खूब आकर्षित करती है।
उत्तर - अंग्रेजी के अच्छे अनुवादक नहीं मिलते हैं, यदि आपकी दृष्टि में कोई हो तो बताइये। वैसे हम भी प्रयास कर रहे हैं । मेरी अधिकांश पुस्तकों के अनुवाद मराठी, गुजराती, कन्नड और तमिल में प्रकाशित हो ही चुके हैं, जिनके शेष हैं, उनके हो रहे हैं । आगामी बाहुबली सहस्राब्दी तक अनेक पुस्तकों के अनुवाद उक्त भाषाओं में प्रकाशित करने की योजना है। हमारे साहित्य को जनता ने बहुत पसन्द किया है। अब तक मेरी कृतियों की ५६ भाषाओं में ८ लाख से ऊपर प्रतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं।
प्रश्न – अब मैं व्यवाहारिक प्रश्नों को छोड़कर निश्चय पर प्रश्न करना चाहता हूँ। १. यह संख्या सन् ८० की है । अभी तक तो आपकी ४० लाख प्रतियाँ प्रकाशित हो चुकी है।