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लौहपुरुष श्री नेमीचनंद पाटनी
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सम्पूर्ण व्यवस्था का भार अपने सिर पर ढोकर भी तथा स्वयं प्रवचनकार होने पर भी स्वयं एक भी प्रवचन नहीं करते, अपितु उन्हीं लोकप्रिय प्रवक्ताओं के प्रवचन कराते कि जिनसे जनता को अधिकतम लाभ पहुँचने की संभावना रहती है और जिन्हें सुनने की भावना से जनता शिविरों में आती है।
आदरणीय बाबूभाईजी की भावना रहती कि थोड़ा बहुत समय उन लोगों को भी दिया जाय, जो समाज में अपना प्रभाव रखते हैं, भले ही वे मूल तत्त्वज्ञान से अपरिचित हों; क्योंकि उनके अनुकूल बने रहने से समाज में तत्त्वप्रचार की गतिविधियों के चलाने में बाधायें खड़ी न होंगी, पर पाटनीजी का यही कहना रहता कि किसी को खुश करने के लिए जनता के बेशकीमती समय की रेवड़ी बाँटना कतई उचित नहीं है। यदि हमने ऐसा किया है तो उसकी कोई मर्यादा नहीं रहेगी और धीरे-धीरे समय का बहुत बड़ा भाग उन्हीं की भेंट चढ़ जायगा । परिणाम यह होगा कि तत्त्वप्रेमी जनता इन शिविरों से भी उसीप्रकार उदास हो जायेगी, जिसप्रकार समाज के अन्य कार्यक्रमों से रहती है।
उक्त स्थिति में कभी पाटनीजी की चलती, कभी बाबूभाई की; पर जो भी होता दोनों की परस्पर सहमति से ही होता था । कभी कोई ऐसा प्रसंग नहीं बना कि जिसने तनाव पैदा किया हो। आपस की इस गहरी समझदारी की मुमुक्षु समाज को आज अत्यधिक आवश्यकता है ।
कर्मचारियों और कार्यकर्त्ताओं से काम लेना उन्हें अच्छी तरह आता है। कठोर प्रशासक के रूप में तो वे प्रसिद्ध हैं ही, पर उनका मानना है कि कार्यकर्त्ताओं और कर्मचारियों को कार्य करने में क्या कठिनाई आ रही हैं,
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• यह जानना और उसका निराकरण करना भी प्रशासक का उत्तरदायित्व है । जबतक उस समस्या का उचित समाधान नहीं निकाला जायगा, जिससे कार्य में रुकावट आ रही है, तबतक कार्य में सफलता मिलना संभव नहीं है ।
समस्याओं से घबड़ाना तो उनकी प्रकृति में ही नहीं है। शोभा के पदों पर रहना भी उन्हें स्वीकार नहीं होता। जिस संस्था से जुड़ते हैं, पूरी सक्रियता