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________________ 76 बिखरे मोती __"डॉक्टर साहब! आप जाइये, आपको प्रवचन करना है, यहाँ तो हम सब हैं ही।" ___ मैंने कहा - "आप क्या कह रहे हैं? ऐसे अवसर पर मैं कैसे जा सकता हूँ? आज कोई और प्रवचन कर लेगा, अनेक विद्वान वहाँ उपस्थित हैं।" वे बड़ी ही गंभीरता से बोले - "इस औपचारिकता में क्या रखा है? आपको सुनने हजारों लोग आये हैं, उन्हें आपका लाभ मिलना ही चाहिए। यह सब तो चलता ही रहेगा, यह सब तो दुनिया है। आप तो जाइये।" मैंने फिर कहा - "अभी तो देर है, थोड़ी देर बाद चला जाऊँगा।" वे बोले - "नहीं, आप अभी ही चले जाइये। आप घर जायेंगे, नहायेंगे, कपड़े बदलेंगे, सर्दी बहुत है, थोड़ा ताप लीजिए, अन्यथा तबियत खराब हो जायेगी।" - ऐसा कहते हुए तबतक खड़े रहे, जबतक कि मैं वहाँ से चल नहीं दिया। ___ मेरे साथ अनेक और लोग भी सोचते ही रह गये कि ये किस मिट्टी के बने हुए हैं। इतना धैर्य क्या तत्त्वज्ञान की गहराई के बिना सम्भव है? तत्त्वज्ञान के प्रचार-प्रसार की इतनी प्रबल भावना किन-किन में है? यह अपनी-अपनी छाती पर हाथ रखकर देखने की बात है? जरा-सी प्रतिकूलता आने पर हम प्रवचन नहीं करेंगे या इस काम में सहयोग नहीं देंगे। इसप्रकार की प्रवृत्तिवालों को अपने अंतर को गहराई से देखने की महती आवश्यकता है और पाटनीजी के आदर्श जीवन और विचारों से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता भी है। ___ वीतरागी तत्त्वज्ञान को जन-जन तक पहुँचाने का कोई भी अवसर चूकना उन्हें स्वीकार नहीं होता, अपितु उसका अच्छे से अच्छा उपयोग कर लेना उनकी अपनी विशेषता है। शिविरों में वीतरागी तत्त्वज्ञान सीखने की भावना से आनेवाली जनता के समय और भावना की उनकी दृष्टि में कितनी कदर है? इसे भी मैंने अनेक प्रसंगों में गहराई से अनुभव किया है। शिविरों में २०-२० दिनों तक रहकर
SR No.009446
Book TitleBikhare Moti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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