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श्री पूरनचन्दजी गोदीका
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मैंने कहा
'आप तीन-तीन घंटे दोनों समय यहाँ बैठे रहते हैं, इसमें भी थकान होती है; इसे भी कुछ कम कीजिये।" तो वे एकदम तेजी से बोले "यह नहीं हो सकता है, प्रवचन तो मेरा जीवन है, इसे तो मैं किसी भी स्थिति में नहीं छोड़ सकता । "
"मैं ज्ञानानन्द स्वभावी हूँ" अध्यात्म - गीत उन्होंने वर्षों पीछे पड़कर मुझसे बनवाया था। जब यह बन गया तो उन्हें इतना आनन्द हुआ कि मैं कह नहीं सकता। वे इसे जीवनभर गाते रहे, गुनगुनाते रहे ।
कुछ
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श्री एम. के. गांधी, लन्दन ने मुझे बताया कि उनकी गोदीकाजी से सर्वप्रथम भेंट लन्दन से भारत आते हुए प्लेन में हुई थी । गोदीकाजी " मैं ज्ञानानन्द स्वभावी हूँ" गुनगुना रहे थे। यह सुनकर मैंने उनसे स्वयं परिचय किया। वे इसे घर-बाहर, देश-परदेश में गुनगुनाया ही करते थे ।
मेरे चित्त में ऐसे हजारों प्रसंगों की स्मृतियाँ संचित हैं कि जिनके स्मरण मात्र से रोमांच हो जाता है ।
इसमें रंचमात्र भी शंका नहीं है कि यदि आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजीस्वामी का समागम न मिलता तो मेरा जीवन आध्यात्मिक नहीं होता और गोदीकाजी का समागम नहीं मिलता तो मैं जिन - अध्यात्म को जन-जन तक पहुँचाने का यह कार्य नहीं कर सकता था, जो आज पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट के माध्यम से हो रहा है ।
आज दोनों ही महापुरुष हमारे बीच नहीं हैं, पर स्वामीजी का दिया हुआ तत्त्वज्ञान और गोदीकाजी द्वारा जुटाये साधन हमारे पास उपलब्ध हैं तथा मेरे जीवन का लक्ष्य भी यही एक मात्र रह गया है कि आत्म-साधना और आत्माराधना के अतिरिक्त जो भी समय रहे, वह स्वामीजी द्वारा दिये गये वीतरागी - तत्त्वज्ञान को गोदीकाजी द्वारा जुटाये गये साधनों के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाता रहूँ । मेरी दृष्टि में दोनों महापुरुषों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि भी यही होगी।
आज इस महान कार्य में सहयोग करनेवाले ही मेरे मित्र हैं और इस मार्ग का विरोध करनेवाले या इस मार्ग से विचलित करनेवाले ही अमित्र हैं । अब मेरे लिए मित्रता और अमित्रता का आधार कोई लौकिक नहीं रह गया है; यह आध्यात्मिक कार्य ही एक ऐसा आधार है, जो अनुकूलों और प्रतिकूलों के बीच की विभाजक रेखा है ।