________________
68
बिखरे मोती __उनकी यह भावना और धर्मप्रचार के प्रति समर्पण देखकर मेरा भाव बदल गया; क्योंकि मेरे मन में भी इसप्रकार का कार्य करने की तीव्र भावना थी ही, पर । __ मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि गोदीकाजी ने जैसा कहा था, उससे बढकर कर दिखाया। उनका व्यवहार इतना अच्छा रहा कि जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। सहयोग भी इतना अधिक रहा कि मैं एक छोटी-सी पुस्तक लिखता और उसे गुरुदेवश्री को सुनाने के लिए सोनगढ़ जाता तो वे साथ जाते; पाटनीजी को, सेठीजी को भी साथ ले चलते । इसतरह पूरी पार्टी जाती। पन्द्रह-पन्द्रह दिन तक वहाँ रहते। कितना आनन्द आता था - यह हम ही जानते हैं। आज.वे सब बातें दुस्स्वप्न-सी हो गई हैं। ___कहीं भी शिविर लगता तो हमारे साथ जाते, बीस-बीस दिन तक साथ रहते। विदिशा शिविर, ललितपुर शिविर आदि ऐसे अनेक उदाहरण हैं; जहाँ वे बीस-बीस दिन तक सपरिवार रहे। उन्हें मुझसे इतना अधिक वात्सल्य हो गया था कि जहाँ भी मैं धर्मप्रचार के लिए जाता, वहीं जाने को तैयार हो जाते। उनके स्वास्थ्य को देखकर कई बार मुझे स्वयं मना करना पड़ा। यह इनका विशुद्ध धार्मिक वात्सल्य था, इसमें कहीं कोई लौकिक गंध न थी। _जब उन्होंने अपनी पोती का संबंध मेरे पुत्र से किया तो अनेक बार लोगों से यह कहते पाये गये कि अब मैंने डॉक्टर साहब (मुझे) को जयपुर का स्थाईवासी बना लिया है। अब मुझे संस्था की कोई चिन्ता नहीं है। __ अन्तर की गहराई से निकले उनके उक्त शब्द भी यही बताते हैं कि वे धार्मिक सम्बन्धों के आधार पर लौकिक कार्य सिद्ध नहीं करना चाहते थे, अपितु लौकिक सम्बन्धों के माध्यम से भी वीतरागी तत्त्वज्ञान के प्रचार-प्रसार की गतिविधियों को स्थिरता प्रदान करना चाहते थे।
देहावसान के तीन दिन पहले ही जब मैंने उनसे देवलाली पंचकल्याणक में चलने के लिए कहा, तो कहने लगे कि अब मैं कहीं नहीं जा सकूँगा। मेरा स्वास्थ्य साथ नहीं देता। मेरा तो कहना है कि आप भी अब बाहर जाना कम कीजिये, अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखिये।