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________________ श्री पूरनचन्दजी गोदीका 67 प्रवचन स्थगित करके मेरा प्रवचन रखा। दूसरे दिन भोजन के लिए सब एकत्रित थे। खीमचन्दभाई के सामने उन्होंने मुझसे कहा कि आप जयपुर पधारिये। मैं यह समझा कि प्रवचनार्थ आने की कह रहे हैं; अतः मैंने कहा "क्यों नहीं? अवश्य आऊँगा, जब आप बुलायेंगे, हाजिर हो जाऊँगा।" वे बोले – " मैं तो हमेशा के लिए आने की कह रहा हूँ।" मैं कुछ समझा नहीं तो खीमचन्दभाई ने मुझे विस्तार से बताया कि गोदीकाजी ने जयपुर में बहुत बड़ी संस्था स्थापित की है। उसे संभालने के लिये आपको स्थायीरूप से रखना चाहते हैं । सेठों के प्रति मेरा अनुभव अच्छा न था । मैं तो यही समझता था कि मान के भूखे ये लोग ऐसे ही कहा करते हैं । अतः मैंने कहा 44 'आपकी भावना तो ठीक है, पर आप करना क्या चाहते हैं, क्या आपके पास कोई ठोस योजना है?" उन्होंने अपनी भावना व्यक्त करते हुए कहा "मैं एक जैन विश्वविद्यालय खोलना चाहता हूँ ।" उनकी बात सुनकर मुझे हँसी आ गई, पर उनकी अन्तरभावना जानने के लिये मैं उनसे बहुत-सी बातें करता रहा। उनकी निश्छल बातों से मैं यह समझ गया कि वे जैनधर्म का सुव्यवस्थित प्रचार-प्रसार करना चाहते हैं, विशेष कर बालकों में धार्मिक संस्कार डालना चाहते हैं । मैंने दो-तीन दिन में एक रूपरेखा तैयार की और वह उन्हें देते हुए कहा कि आपको यह करना चाहिये। मेरी वह रूपरेखा और कुछ न थी, बस वही थी, जो विगत २२ वर्षों में पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट के माध्यम से अबतक हुआ है और हो रहा है। मेरी वह रूपरेखा उन्हें बहुत पसंद आई और जयपुर आने के लिए अतिआग्रह करने लगे। कहने लगे "हम आपको अपने भाई जैसा ही रखेंगे, कोई तकलीफ न होगी; आप जो चाहे, करें; हम उसमें पूरा-पूरा सहयोग करेंगे।" —
SR No.009446
Book TitleBikhare Moti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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