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________________ 59 अजातशत्रु पण्डित बाबूभाई चुन्नीलाल मेहता मैंने कहा " जिनवाणी मात्र अलमारियों में ही सुरक्षित नहीं रहना चाहिए, लोगों के कण्ठों में भी बसना चाहिए, दिलो और दिमाग में भी सुरक्षित रहना चाहिए ।" उन्होंने कहा " मेरी भी यही भावना है। " उन्होंने मात्र भावना ही प्रगट नहीं की, अपितु तत्काल कार्य आरम्भ करा दिया। परिणामस्वरूप कुन्दकुन्द - कहान तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट के प्रकाशन विभाग के साथ प्रचार विभाग भी चल रहा है । - जब से वे रुग्णावस्था में जयपुर में रहे, तब की बात छोड़ भी दें तो भी वर्ष में लगभग चार माह उनके साथ-साथ रहने का अवसर तो मुझे मिलता ही रहा है। सोनगढ़ शिविर, जयपुर शिविर, शिक्षण-प्रशिक्षण शिविर में तो साथ-साथ रहना होता ही था; पंचकल्याणक आदि उत्सवों एवं महासमिति आदि की मीटिंगों में भी उनके साथ रहना होता था । लगातार तीन माह तक साथ-साथ रहने का अवसर सर्वप्रथम धर्मचक्र यात्रा में रहा; जिसमें हमारा सोना, उठना-बैठना, खाना-पीना, चलना-फिरना सब एक साथ ही होता था । उससमय उनकी कार्यक्षमता, साधर्मी वात्सल्य और धर्मप्रचार की उत्कट भावना मुझे अत्यन्त समीप से देखने को मिली। मेरे कमजोर स्वास्थ्य और उग्र प्रकृति को उन्होंने किसप्रकार सँभालकर रखा ? यह मैं ही जानता हूँ । मुझे पक्का विश्वास था कि मैं इस लम्बी यात्रा में निश्चितरूप से बीमार होकर लौटूंगा; पर अथक श्रम के बावजूद भी स्वस्थ लौटा यह उनके साधर्मी वात्सल्य का ही प्रभाव था। — - आज वे बातें स्वप्न - सी हो गई हैं। जब वे बातें याद आती हैं तो चित्त उद्विग्न हो जाता है। यद्यपि वे मुझसे छह वर्ष बड़े थे; तथापि जब शिखरजी की यात्रा में मुझे डोली में बिठा देते और स्वयं पैदल चलते, तब कौन कल्पना कर सकता था कि वे इतनी जल्दी पंगु हो जावेंगे और हमें बिलखता छोड़कर चल भी देंगे? यद्यपि मेरे हृदय में उनके प्रति जितना सम्मान था, वह मैं ही जानता हूँ; तथापि लोग उनके सामने जितने विनत रहते थे, उतना मैं नहीं, मैं उनका मुँह
SR No.009446
Book TitleBikhare Moti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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