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. बिखरे मोती ___ जिन गुरुदेवश्री ने जीवनभर गुरुडम का विरोध किया, उनके नाम पर गुरुडम चलाना न तो उपयुक्त ही है और न उन्हें भी इष्ट था, होता तो अपने उत्तराधिकारी की घोषणा वे स्वयं कर जाते। उनके जीवनकाल में भी जब उनसे इसप्रकार की चर्चायें की गई तो उन्होंने उदासीनता ही दिखाई। ___ अतः उनके रिक्तस्थान की पूर्ति की चर्चा का कोई अर्थ नहीं है। रहा प्रश्न उनके द्वारा या उनकी प्रेरणा से संचालित तत्त्वप्रचार की गतिविधियों के भविष्य का। सो भाई, पिता के देहावसान होने पर उनके लगाए कारखाने बन्द नहीं होते, अपितु एक के अनेक होकर और अधिक द्रुतगति से चलते हैं । जब दोचार पुत्रों के होने मात्र से ये कल-कारखाने द्विगुणित-चतुर्गुणित होकर चलते हैं, तो जिस धर्मपिता ने चार लाख से भी अधिक धर्म संतानें छोड़ी हों, उसके चलाए कार्यक्रम कैसे बन्द हो सकते हैं? वे तो शतगुणित-सहस्रगुणित होकर चलने चाहिये और चलेंगे भी। इसमें आशंकाओं के लिए कोई अवकाश नहीं है।
सोनगढ़ में ही नहीं, अपितु सारे देश में अब भी वैसे ही शिविर लगेंगे जैसे कि गुरुदेवश्री की उपस्थिति में लगते थे। वैसा ही साहित्य प्रकाशित होगा और कम से कम मूल्य में उपलब्ध कराया जायेगा, जैसा कि गुरुदेवश्री के सद्भाव में होता था। और भी सभी कार्यक्रम अब भी उसीप्रकार संचालित होंगे, जिसप्रकार कि तब चलते थे। . ___ याद रखो, यदि ऐसा नहीं हुआ तो हम सब उन्हीं कुपुत्रों में गिने जावेंगे, जो कि पिता के द्वारा छोड़ी संपति को बढ़ाते नहीं, अपितु बर्बाद कर देते हैं। अब हमें गुरुदेव की ओर नहीं, अपनी ओर देखना है और यह सिद्ध करना है कि हम अपने धर्मपिता के कपूत नहीं, अपितु सपूत हैं। क्या कमी है आज हमारे पास? धनबल, जनबल, बुद्धिबल - सभी कुछ तो है। कुछ भी तो नहीं ले गये वे, सबकुछ यहीं तो छोड़ गए हैं, हमारे लिये। जब उन्होंने दिगम्बर धर्म स्वीकार किया था, तो आत्मबल के अतिरिक्त क्या था उनके पास? पर अकेले उन्होंने एक टेकरी को तीर्थ बना दिया, देशभर में धर्म का डंका