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बिखरे मोती महावीर भगवान के, संगमरमर के पाटियों पर उत्कीर्ण पंच-परमागमों के, समवशरण मन्दिर के, मानस्तम्भ के दर्शन करने तो लोग अवश्य आवेंगे। आवेंगे तो अवश्य, पर तभी जब कि गिरनार या पालीताना की यात्रा पर जायेंगे। आवेंगे, पर रुकेंगे नहीं; क्योंकि आपके चले जाने से उन्हें रोकने वाला नहीं रहा। आपकी वाणी का आकर्षण ही तो उन्हें रोकता था, जब वह ही नहीं रहा तो क्या आकर्षण रहा लोगों के रुकने का?
श्रावण में यात्रा तो होती नहीं, श्रावण में तो लोग आपके आकर्षण से ही आते थे। अब वे कहाँ जायेंगे? उनका आश्रयदाता चला गया, अब वे किसका आश्रय पावेंगे?
जब प्रातः ८ और सायंकाल ३ बजेंगे, तब हम किसकी दिव्य-देशना सुनने दौड़े जावेंगे और संध्या के ७ बजे अपनी शंकाओं का समाधान किससे पावेंगे? ये तीनों समय क्या अब हमें काटने नहीं दौड़ेंगे?
विभिन्न प्रान्तों के, विभिन्न जातियों के, विभिन्न भाषा-भाषी लोग आपके माध्यम से प्रान्तीयता, जातीयता और भाषावाद के बन्धनों को तोड़कर एक हो गये हैं। वे सब आपके माध्यम से जुड़े थे, जुड़े हैं; पर अब किस माध्यम से जुड़े रहेंगे? तोड़ने वाले तो पग-पग पर मिलेंगे, पर जोड़ने वाला कहाँ मिलेगा? अब कैसे जुड़ेंगे, कैसे जुड़े रहेंगे? - यह प्रश्न भी हमारे सामने मुँह बाए खड़ा है? .
अब कौन देगा हमें मार्गदर्शन, कौन बँधावेगा धीरज?
आपने लाखों आत्मार्थियों को घड़े जैसा गढ़ा है। जिसप्रकार कुम्हार कच्ची मिट्टी से घड़े को गढ़ता है, उसीप्रकार आपने हमें गढ़ा है। कुम्हार घड़े को गढ़ते समय ऊपर से धीमी-धीमी थाप मारता है तो अन्दर से हाथ का सहारा भी दिये रहता है, तब बनता है घड़ा। इसीप्रकार भटकते हुए आत्मार्थी को आपकी मीठी फटकार और अन्दर से दिया गया सहारा न तो उसे विचलित होने देता था और न प्रमादी ही। धनिकों को अभिमान न हो जाय - इस भावना से धन को धूल बताने वाली फटकार लाखों लोगों ने आपके मुख से सुनी है