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बिखरे मोती न मालूम कब तक चलता रहेगा। हमारी भावना है कि यह कारवाँ सदैव चलता ही रहे, चलता ही रहे; कभी रुके ही नहीं।
इसप्रकार बिना प्रयास के अनायास ही स्वामीजी के माध्यम से इस विषम युग में भी आचार्य कुन्दकुन्द की वाणी जन-जन तक पहुँच गई और पहुँच रही है। आज तो स्थिति यह है कि समयसार के पाठकों को बिना पूछे ही स्वामीजी का अनुयायी समझ लिया जाता है। उसके लाख इन्कार करने पर भी कोई यह मानने को तैयार नहीं होता कि स्वामीजी से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। यदि कोई यह भी सिद्ध कर दे कि मैंने तो स्वामीजी को कभी देखा ही नहीं है; तो भी कहा जायेगा कि कानजीस्वामी नहीं तो उनके शिष्य-प्रशिष्य से तुम्हारा सम्बन्ध होगा।
उक्त सम्पूर्ण स्थिति की सम्यक् समीक्षा करने पर एक तथ्य हाथ पर रखे आँवले के समान प्रतिफलित होता है कि कर्तृत्व के अहंकार से कुछ नहीं होता; जो कुछ होता है, वह सब सहजभाव से ही घटित होता है । कुन्दकुन्द की वाणी को जन-जन तक पहुँचाने का अहंकार करने वालों को एक बार अपना आत्मनिरीक्षण भी करना चाहिए कि क्या उन्हें स्वयं कुन्दकुन्द वाणी का सामान्य परिचय भी है, क्या उन्होंने कुन्दकुन्द के किसी ग्रन्थ का कभी आद्योपान्त स्वाध्याय भी किया है? उनकी वाणी के मर्म से सर्वथा अछूते लोगों के द्वारा उनकी वाणी के प्रचार-प्रसार की चर्चा कल्पनालोक की उड़ान ही सिद्ध होती है। __ हाँ, यह बात अवश्य है कि स्वामीजी द्वारा जो कुन्दकुन्द वाणी की गंगा का प्रबल प्रवाह चला, उसमें अवरोध पैदा करने वाले प्रयासों से जो कोलाहल उत्पन्न हुआ; उससे भी अनेक लोगों की निद्रा भंग हुई और वे भी जाग गये, तथा उन्होंने भी स्वामीजी के माध्यम से कुन्दकुन्द की वाणी का रहस्य जाना
और वे भी कृतार्थ हुए। __ "विरोध प्रचार की कुन्जी है"- इस सिद्धान्त के अनुसार स्वामीजी का विरोध करने वालों को भी कुन्दकुन्द की वाणी के प्रचार-प्रसार करने का कुछ