________________
25
आचार्य कुन्दकुन्द की वाणी के प्रचार-प्रसार __ स्वामीजी ने कुन्दकुन्द वाणी के प्रचार-प्रसार के लिए कुछ किया हो - ऐसा बिल्कुल नहीं है । उनका जन्म भी कुन्दकुन्द के अनुयायी सम्प्रदाय में नहीं हुआ था; किन्तु जब उन्हें आचार्य कुन्दकुन्द का समयसार हाथ लगा और उन्होंने उसका सामान्यावलोकन किया तो उनके मुँह से सहज ही फूट पड़ा - "अहा, यह तो अशरीरी होने का शास्त्र है।" ____ और वे सबकुछ भूलकर उसके मंथन में जुट गये। वे जंगल में जाते, किसी गिरि-गुफा में बैठकर घण्टों उनके अध्ययन-मनन-चिन्तन में मग्न रहते, खाने-पीने की भी सुध नहीं रहती। उन दिनों वे समयसारमय हो गये थे और समयसार उनमय हो गया था। उन दिनों ही क्या, समयसार मिलने के बाद वे जीवनभर ही समयसारमय रहे।
वे आचार्य कुन्दकुन्द और उनके समयसार पर ऐसे समर्पित हुए कि उन्होंने स्थानकवासी सम्प्रदाय एवं उसका गुरुतर गुरुत्व सबकुछ एक झटके में ही निछावर कर दिया और स्वयं को दिगम्बर श्रावक के रूप में घोषित कर दिया तथा पिछला सबकुछ भूलकर निराकुल हो समयसार के स्वाध्याय में जुट गये।
धीरे-धीरे लोग उनसे समयसार सुनने आने लगे और वे लोगों को समयसार सुनाने लगे। यह क्रम ऐसा चला कि लगातार ४५ वर्ष तक चलता रहा और सोनगढ़ ही नहीं सम्पूर्ण देश समयसारमय हो गया। स्वामीजी ने लगातार १९ बार आद्योपान्त समयसार सभा में पढ़ा, उस पर प्रवचन किये। अन्तर में तो न मालूम कितनी बार पढ़ा होगा?
उनकी प्रवचन-सभा में यह नियम था कि वे जिस शास्त्र पर प्रवचन करते, प्रत्येक श्रोता के हाथ में वह ग्रन्थ होना ही चाहिए। तदर्थ समयसार छपाये गये। श्रोताजन बढ़ते गये और समयसार छपते गये। श्रोता भी लाखों हो गये और समयसार भी लाखों प्रतियों में छपकर जन-जन तक पहुँच गये। श्रोताओं में से साधक तो तैयार हुए ही, अनेक प्रवचनकार भी सहज ही तैयार हो गये। इसप्रकार एकाकी चल पड़े स्वामीजी के पीछे एक कारवाँ चल पड़ा और वह चलता ही रहा। स्वामीजी तो चले गये, पर कारवाँ आज भी चल रहा है और