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बिखरे मोती समयसार आदि अध्यात्म की चर्चा करने वाले अत्यन्त विरले थे। आज भी दिगम्बर जैन विद्वानों में भी समयसार का अध्ययन करने वाले बिरले हैं। हमने स्वयं समयसार तब पढ़ा, जब श्री कानजीस्वामी के कारण ही समयसार की चर्चा का विस्तार हुआ; अन्यथा हम भी समयसारी कहकर ब्र. शीतलप्रसादजी की हँसी उड़ाया करते थे। ___ यदि कानजीस्वामी का उदय न हुआ होता तो दिगम्बर जैन समाज में भी कुन्दकुन्द के साहित्य का प्रचार न होता।"
सिद्धान्ताचार्यजी की उक्त पंक्तियाँ डंके की चोट पर यह घोषणा कर रही हैं कि इस युग में आचार्य कुन्दकुन्द की वाणी के प्रचार-प्रसार में आध्यात्मिकसत्पुरुष श्रीकानजीस्वामी का अविस्मरणीय योगदान है।
गंभीरता से विचार करने की बात यह है कि जो काम हजारों व्यक्तियों के सम्मिलित प्रयासों से भी संभव नहीं हो पाता, वह काम अपने में ही मग्न इस महापुरुष से कैसे संभव हुआ? ___ आज यह बात किसी से छुपी नहीं है किसी भी महापुरुष की वाणी के प्रचार-प्रसार के नाम पर राष्ट्रीय स्तर पर एवं सम्पूर्ण समाज के स्तर पर अनेक योजनायें बनती हैं, करोड़ों का बजट भी बनता है, बाहरी ताम-झाम भी बहुत होता है; पर कतिपय दिनों तक थोड़ा-बहुत हो-हल्ला होकर रह जाता है; इससे आगे कुछ भी नहीं होता।
आचार्य कुन्दकुन्द की वाणी के प्रचार-प्रसार के लिए भी सम्पूर्ण समाज के स्तर पर अनेक योजनायें बनीं, उनके द्विसहस्राब्दी समारोह मनाने के लिए अनेक आयोजन भी किये गये पर क्या हम ऐसा कुछ कर सके हैं कि जिससे पीढ़ियाँ प्रभावित हुई हों, दस-बीस व्यक्ति कुन्दकुन्द के रंग में रंग गये हों; एक भी व्यक्ति ने कुन्दकुन्द की वाणी का गहराई से रसास्वादन किया हो? जबकि आध्यात्मिकसत्पुरुष श्रीकानजीस्वामी के प्रताप से कुन्दकुन्द के लाखों पाठक तैयार हुए हैं, कुन्दकुन्दवाणी के सैकड़ों प्रवक्ता तैयार हुए हैं और लाखों श्रोता भी तैयार हुए हैं ; करोड़ों की संख्या में उनसे संबंधित साहित्य भी जनजन तक पहुँचा और यह सबकुछ बिना प्रदर्शन के एकदम चुपचाप हुआ है।