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विवेके हि न रौद्रता : विवेकी कभी क्रुद्ध नहीं होता
215 क्रोध आता है तो, वह किसी न किसी पर आता है। उस समय हमारे दिमाग में कोई न कोई परपदार्थ रहता है, जिसके सम्बन्ध में हम सोचते हैं कि इसने मेरा बुरा किया है या यह मेरा बुरा करेगा या करना चाहता है। उक्त प्रक्रिया बिना क्रोधादिक की उत्पत्ति संभव नहीं है।
इस विवेक के उत्पन्न होने पर कि कोई परपदार्थ मेरा भला-बुरा नहीं करता। मेरे भले-बुरे होने का उत्तरदायित्व मुझ पर या मेरे द्वारा कृत कर्मों पर है तो क्रोधादि की उत्पत्ति सहज ही नहीं होगी, यही कारण है कि विवेकी कभी क्रुद्ध नहीं होता। ___ आत्मा का हित तो आत्मा को सही रूप में जानने एवं क्रोधादि विकारी भावों के न होने में है। जबतक हमारा ध्यान पर की ओर रहेगा और हम पर को ही अपने भले-बुरे का कर्ता मानते रहेंगे, तबतक क्रोधादि विकार उत्पन्न होते रहेंगे।
वस्तुत: वास्तविक तत्वज्ञान ही विवेक है। क्रोधादि का अभाव या कम करने का उपाय एकमात्र तत्वज्ञान का अभ्यास ही है । वादीभसिंह सूरि अपने लोकप्रिय ग्रन्थ क्षत्रचूड़ामणि में लिखते हैं -
__ "तत्वज्ञानजलं नो चेत् क्रोधाग्नि केन शाम्यति । यदि तत्वज्ञान रूपी जल न हो तो क्रोध रूपी अग्नि किसके द्वारा शान्त होगी।" ___ आत्मा एक अविनाशी पदार्थ है और क्रोधादिभाव क्षणिक आवेश मात्र हैं। उनके नाश होने पर आत्मा का नाश नहीं होता। वे छोड़ने लायक ही हैं, करने योग्य नहीं। - ऐसा विवेक जिनके हृदय में उत्पन्न हो जाता है, उन विवेकी महापुरुषों के हृदय में या तो क्रोधादिभाव उत्पन्न ही नहीं होते हैं और हों भी तो वैसे नहीं होते जैसे अविवेकी के पाये जाते हैं । विवेकी का विकार क्षणिक होता है; क्योंकि विवेक विकार को टिकने नहीं देता है। वह विवेक ही नहीं, जिसके रहते आत्मा क्रोधादि के आधीन हो जावे। ज्ञानार्णव में आचार्य शुभचंद्र कहते हैं -