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________________ 214 कहा भी है : बिखरे मोती पूर्वमात्मानमेवासौ क्रोधान्धो दहति ध्रुवम् । पश्चादन्य न वा लोको विवेकविकलाशयः ॥ ६॥ विवेक रहित क्रोध से अन्धा व्यक्ति अपने को तो जला ही लेता है, दूसरों को जलावे या नहीं। जैसे - कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति को जलते हुए अंगारे से मारने की कोशिश करे तो पहिले वह जलेगा ही; क्योंकि उसने हाथ में अंगारा उठाया है। फेंकने पर दूसरा बच भी सकता है 1 भले-बुरे संयोगों में निमित्त तो अपने द्वारा पूर्व में किये गये कर्म हैं । अविवेकी दुष्कर्म करना तो छोड़ता नहीं और प्राप्त संयोगों पर क्रोध करता है । यह तो ऐसा है जैसे रोगी उन कुपथ्यों का सेवन तो छोड़े नहीं, जिनके कारण रोग हुआ है और रोग बताने वाले वैद्य को भला-बुरा कहे । सारी दुनिया में जितने दुष्कर्म होते हैं, उन सबके मूल में कोई न कोई क्रोधादिरूप रौद्र भाव ही रहता है। द्वारिका जैसी पूर्ण विकसित और सम्पन्न नगरी का विनाश द्वीपायन मुनि के क्रोध के कारण ही हुआ था । क्रोध के कारण ही सैकड़ों घर-परिवार टूटते देखे जाते हैं । विनाश का मूल कारण एकमात्र क्रोधभाव ही देखा जाता है। अधिक क्या कहें जगत में जो कुछ भी बुरा नजर आता है; वह सब अविवेक से उत्पन्न क्रोधादि भावों का ही परिणाम है और जो कुछ भी अच्छा दिखाई देता है; वह सब विवेक का कार्य है । — जैनाचार्यों के अनुसार क्रोधादि मनोविकारों से आत्मा को भिन्न जानना ही विवेक है। विवेक का लौकिक अर्थ इससे कुछ भिन्न भी हो सकता है, पर वहाँ भी हिताहित के ज्ञान को ही विवेक कहा जाता है । सत्य-असत्य और अच्छे-बुरे की पहिचान ही विवेक है। उक्त विवेक के होने पर क्रोधादिक उत्पन्न क्यों नहीं होंगे ? मूल विचारणीय प्रश्न तो यह है । जब हम क्रोधादि को आत्मा से भिन्न, आत्मा का अहित करनेवाले एवं छोड़ने योग्य मानेंगे तो फिर हम निश्चित रूप से उन्हें कम करेंगे। क्रोधादि भाव जब भी उत्पन्न होते हैं, परलक्ष्य से होते हैं । तात्पर्य यह है कि हमें जब
SR No.009446
Book TitleBikhare Moti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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