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________________ विवेके हि न रौद्रता : विवेकी कभी कुद्ध नहीं होता 213 की उत्पत्ति जड़ पदार्थों में न होकर केवल आत्मा में ही होती है; तथापि वे विकार आत्मा के स्वभाव नहीं। आत्मा तो ज्ञानानन्दस्वभावी ध्रुव पदार्थ है और क्रोधादि विकार मृगी के वेग की भाँति उतार-चढ़ाव वाले अध्रुव स्वभावी हैं। जिसप्रकार काई यद्यपि जल में उत्पन्न होती है, तथापि वह जल नहीं है, जल का स्वभाव भी नहीं है, जल का मैल है। उसीप्रकार क्रोधादि विकार यद्यपि आत्मा में उत्पन्न होते हैं, तथापि वे आत्मा नहीं, आत्मा के स्वभाव भी नहीं; आत्मा के मैल हैं, विकार हैं। उनके सद्भाव से आत्मा को कोई लाभ नहीं होता, अपितु हानि होती है। आचार्य गुणभद्र अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ आत्मानुशासन में स्पष्ट लिखते हैं कि - "क्रोधोदयाद् भवति कस्य न कार्यहानिः ॥ २१६॥" क्रोधादि के उदय में किसकी कार्य हानि नहीं होती, अर्थात् सभी की होती है। इनसे सबको नुकसान ही होता है, लाभ नहीं। क्रोधावेश को प्राप्त व्यक्ति की परिणति की चर्चा करते हुए महापण्डित टोडरमल अपने ग्रन्थ मोक्षमार्ग प्रकाशक में आज से २१० वर्ष पूर्व लिखते हैं कि - __"जब क्रोध कषाय उत्पन्न होती है; तब दूसरों का बुरा करने की इच्छा होती है और उसके लिए अनेक उपाय विचारता है, गालियाँ देने लगता है, हाथों, पैरों और शस्त्र-पाषाणादि से मारपीट करने लगता है। स्वयं अनेक कष्ट सहकर धनादि खर्च करके यहाँ तक मरणादि द्वारा अपना ही नुकसान करके औरों का बुरा करने का यत्न करता है । अपना कोई भी लाभ न हो तो भी अन्य का बुरा करना चाहता है। कोई पूज्य पुरुष भी बीच में आवे तो उसे भी मारने लगता है। कोई विवेक नहीं रहता। यदि फिर भी उसका बुरा न हो तो स्वयं बहुत दु:खी होता है, अपने ही अंगों का घात करने लगता है। यहाँ तक कि विषादि खाकर मर तक जाता है।" क्रोधादि विकारों के वशीभूत अविवेकी व्यक्ति अपना नुकसान तो करता ही है, चाहे उस दूसरे का नुकसान हो या न हो। जिस पर क्रोध किया जा रहा है, उसका लाभ-हानि तो उसके पुण्य-पाप के आधीन है।
SR No.009446
Book TitleBikhare Moti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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