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बिखरे मोती
वे स्वयं आकुलतामय हैं और आकुलता का नाम ही दुःख है। तो फिर वह कारण क्या है ?
प्रश्न मार्मिक है । समाधान यह है जो आत्मा का स्वभाव अनुत्पन्नअविनष्ट स्वभाववाला होने से नित्य है, विभाव पर्यायस्वरूप न होने के कारण कर्मों के संयोग से रहित है, अतएव शुद्ध है, द्रव्य की सब अवस्थाओं में व्याप्त होकर रहने के कारण त्रिकाली है और भेदव्यवहार से रहित होने के कारण एक है; ऐसा जो अपना आत्मस्वभाव है, जो कि आत्मा की निज सम्पत्ति है और जो अनन्त सुख का भण्डार है, उसे यदि अपने अनुभव का विषय बनाया जाय तो जिन कारणों से दु:ख परम्परा की उत्पत्ति होती है, उनका अभाव होकर निराकुलतारूप अनन्त सुख की सृष्टि हो सकती है । संसारी आत्मा के लिए सर्व समाधानकारक यदि कोई सारभूत पदार्थ हो सकता है तो उक्त प्रकार का आत्मस्वभाव ही, अन्य नहीं; • यह एकान्त सत्य है ।
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इसी तथ्य को ध्यान में रखकर आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में कहते हैं
सुद्धं तु वियाणतो, सुद्धं चेपप्पयं लहइ जीवो । जाणतो दु असुद्धं, असुद्धमेवप्पयं लहदि ॥ १८६ ॥
शुद्ध आत्मा को जानता हुआ - अनुभवता हुआ जीव शुद्ध आत्मा को ही प्राप्त करता है और अशुद्ध आत्मा को जानता हुआ अशुद्ध आत्मा को ही प्राप्त करता है ।
अनुभवता हुआ जीव
तात्पर्य यह है कि जो आत्मा की अशुद्ध-विभाव परिणति को अपनी अनुभूति का विषय न बना कर मात्र त्रिकाली अभेदरूप एक ज्ञायकभाव को अपनी अनुभूति का विषय बनाता है; उसके राग, द्वेष और मोहरूप भावास्रव की उत्पत्ति न होकर वीतरागस्वरूप सम्यग्दर्शन आदि स्वभावपर्याय की ही उत्पत्ति होती है।
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- इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र क्या कहते हैं; यह उन्हीं के शब्दों में पढ़िए
यदि कथमपि धारावाहिना बोधनेन,
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ध्रुवमुपलभमानः शुद्धमात्मानमास्ते ।
परपरिणतिरोधाच्छुद्धमेवाभ्युपैति ॥ १२७ ॥
तदयमुदयदात्माराममात्मानमात्मा,