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दुःखनिवृत्ति और सुखप्राप्ति का सहज उपाय
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वह तो मृगमरीचिका है । तत्त्वतः देखा जाय तो वह दुख ही है । इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए श्री प्रवचनसारजी में कहा भी है
सपरं बाधासहियं, विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । जं इंदिएहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा ॥ ७६ ॥ इन्द्रियों से प्राप्त होनेवाला सुख परसंयुक्त है, बाधासहित है, विच्छिन्न है, बन्ध का कारण है और विषम है; अतः वह दुःख ही है ।
यह वस्तुस्थिति है । इसके प्रकाश में आत्मा के वास्तविक सुख के कारणों का विचार करना है। पण्डितप्रवर दौलतरामजी छहढाली की तृतीय ढाल के प्रारम्भ में लिखते हैं
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आतम कौ हित है सुख सो सुख, आकुलता बिन कहिए । आकुलता शिवमाहिं न तातैं, शिवमग लाग्यो चहिए || अभिप्राय यह है कि यदि यह जीव अपने हितस्वरूप यथार्थ सुख को प्राप्त करना चाहता है तो उसे आकुलता के अभावरूप मोक्ष को प्राप्त करने का उद्यम करना होगा। यह जीव चाहे कि मुझ में आकुलता भी रही आवे और यथार्थ सुख की प्राप्ति भी हो जाय, यह त्रिकाल में सम्भव नहीं है; क्योंकि आकुलता वास्तव में दुःख का कारण न होकर स्वयं दुखस्वरूप है । अतएव विचार यह करना है कि यह जीव अपनी पर्यायपरम्परा में से आकुलता का अभाव कैसे करे ? आगे इसी का विचार करते हैं
यह तो सुविदित सत्य है कि इस जीव को मुक्ति की प्राप्ति होने पर वहाँ द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म का किसी प्रकार का संयोग नहीं रहता । मात्र आत्मा आत्मस्थित होकर अनन्त सुख का भोग करता है। इसलिए इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जिन कारणों से द्रव्य कर्म और नोकर्मों का संयोग होकर आत्मा में दुःखपरम्परा की उत्पत्ति होती है; उनसे लक्ष्य हटा कर इसे उनके विरोधी कारणों को अपने लक्ष्य में लेना होगा। अब विचार कीजिए, वह कारण कर्म और नोकर्म या इनका संयोग तो हो नहीं सकता; क्योंकि वे पर हैं । इनसे सुखभाव की उत्पत्ति होना सर्वथा असम्भव है। वह कारण, कर्म और नोकर्म को निमित्त कर जीव में उत्पन्न हुए भाव भी नहीं हो सकते; क्योंकि