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दुःखनिवृत्ति और सुखप्राप्ति का सहज उपाय
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यदि यह आत्मा किसी भी प्रकार से (त्रिकाली आत्मस्वभावोन्मुख पुरुषार्थ करके) धारावाही ज्ञानद्वारा शुद्ध आत्मा को निश्चलतया अनुभव करता है तो यह, जिसका आत्मानन्द प्रगट होता जाता है अर्थात जिसकी प्रति समय आत्मस्थिरता वृद्धिंगत होती जाती है; ऐसे आत्मा को राग-द्वेष-मोहरूप परपरिणति का निरोध होते जाने के कारण शुद्ध ही प्राप्त करता है ।
बात यह है कि विवक्षित को मुख्य और अविवक्षित को गौण करने से ही इष्टार्थ की सिद्धि होती है; ऐसा नियम है। ऐसी अवस्था में विचार यह करना है कि प्रकृत में विवक्षित कार्य क्या है और उसकी सिद्धि किसको मुख्य करने से तथा किसको गौण करने से हो सकती है। यह तो सुविदित सत्य है कि यह जीव अनादि काल से स्वयं को राग-द्वेष - मोहरूप स्त्री- पुरुष - नपुंसकरूप तथा नारकतिर्यञ्च - - मनुष्य- - देवरूप अनुभव करता आ रहा है और इस रूप आत्मा को अनुभव करने से यह अपने में पुनः पुनः उन्हीं भावों की सृष्टि करता आ रहा है। आगामी काल में भी यदि यह अपने आत्मा को इन्हींरूप अनुभव करेगा तो इन्हीं भावों की सृष्टि होगी। किन्तु यह इन भावों से मुक्ति चाहता है, क्योंकि ये आकुलतामय होने से स्वयं दुःखरूप हैं । अतएव वर्तमान में आत्मा की परिणति इन स्वरूप होने पर भी इन्हें अपनी विवेचक बुद्धिद्वारा गौण करना होगा और जिससे इन भावों की पुनः उत्पत्ति न होकर वीतरागस्वरूप सम्यग्दर्शनादि भावों की उत्पत्ति होने लगे ऐसे अपने त्रिकाली ज्ञायक भाव को मुख्य कर तद्रूप आत्मा की अनुभूति प्रगट करनी होगी। स्पष्ट है कि ऐसा करने से इसके भाव संसाररूप पर्याय की सृष्टि तो रुक ही जावेगी। साथ ही भावसंसार को निमित्त कर जो कर्म और नोकर्म का संयोग होता है वह भी यथा सम्भव नहीं होगा और इसप्रकार यह आत्मा, क्रमशः आत्मोत्थ, स्वाश्रयी अविच्छिन्न, समरूप और अतीन्द्रिय परमसुख के निधान आत्मस्वरूप मुक्ति का भागी हो जायेगा ।
यह है संसारी आत्मा को संसार की परिपाटीरूप दुःख से छुड़ाकर सुखस्वरूप मुक्ति में स्थापित करने का एकमात्र सहज उपाय । इससे सिद्ध है कि इस उपाय का जो अवलम्बन लेंगे, उनके जीवन में व्यवहार गौण होकर निश्चयस्वरूप एकमात्र परमपारिणामिक भाव का आश्रय ही मुख्य होगा ।