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समयसार का प्रतिपादन केन्द्रबिन्दु भगवान आत्मा
199 महत्त्व तो अंतरंग आत्मरुचि का ही है । जबतक अन्तर में विषयों से अरुचि
और निज भगवान आत्मा में सच्ची रुचि जाग्रत नहीं होगी, तबतक ऊपर-ऊपर से अध्ययन करने से भी कुछ होनेवाला नहीं है । बाह्य क्रियाकाण्ड से तो कुछ होता ही नहीं है। ___ यदि हम अन्य सभी प्रकार के विकल्पों का शमन कर विशुद्ध आत्महित की दृष्टि से त्रिकाली ध्रुव निज भगवान आत्मा को लक्ष्य में लेकर इस ग्रन्थाधिराज समयसार का गंभीरता से स्वाध्याय करें तो मेरा विश्वास है कि इसमें सर्वत्र ही वही निज भगवान आत्मा ही नजर आयेगा।
आचार्य कुन्दकुन्द के द्विसहस्राब्दी समारोह के इस पावन प्रसंग पर मैं सभी कुन्दकुन्द भक्तों से उनके ग्रन्थाधिराज समयसार का आत्महित की दृष्टि से गहरा अध्ययन करने का हार्दिक अनुरोध करता हूँ तथा भावना भाता हूँ कि सभी आत्मार्थियों को समयसार के मूल प्रतिपाद्य निज भगवान आत्मा का अनुभव-दर्शन, ज्ञान और तल्लीनता अवश्य प्राप्त हो।
• भगवान आत्मा ही सम्पूर्ण श्रुतज्ञान का सार है।
गागर में सागर, पृष्ठ-२८ • भगवान आत्मा स्वयं अपनी योग्यता से ही बँधता-छूटता है, उसे बंधन एवं मुक्ति में अन्य की अपेक्षा नहीं है।
परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ-३३८ • निज भगवान आत्मा ही परमतत्त्व है और मुख्यतः उसका सम्यग्ज्ञान
ही तत्त्वज्ञान है। परमभावप्रकाशकनयचक्र, पृष्ठ-३६८ • भगवान स्वरूप अपनी आत्मा पर रीझे पुरुषों के गले में ही मुक्ति रूपी
कन्या वरमाला डालती है। आत्मा ही है शरण, पृष्ठ-२०२ • आत्मा की सिद्धि के सम्पूर्ण साधन आत्मा में ही विद्यमान हैं।
परमभावप्रकाशकनयचक्र, पृष्ठ-३२४ • अपनी आत्मा का ध्यान ही एकमात्र कर्तव्य है।
गागर में सागर, पृष्ठ-५९
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