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________________ 198 बिखरे मोती यह बात तो समस्त जिनागम में सर्वत्र अत्यन्त स्पष्ट रूप से कही गई है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान बिना सम्यक्चारित्र नहीं होता; अतः सबसे पहले सम्पूर्ण शक्ति लगाकर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, तदुपरान्त निर्मल और दृढ़ चारित्र धारण करना चाहिए; तथापि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने के लिए जितना सशक्त और स्पष्ट दिशानिर्देश समयसार में प्राप्त होता है, वैसा अन्यत्र असंभव नहीं तो विरल अवश्य है । समयसार की ही यह विशेषता है कि जिसमें दृष्टि के विषय को सम्यग्दर्शन के विषयभूत भगवान आत्मा को हाथ में रखे आंवले के समान दिखाने का सफल प्रयास किया गया है और यह स्पष्ट किया गया है कि परमशुद्धनिश्चयनय के विषयभूत परमपारिणामिकरूप, त्रिकाली ध्रुव, पर और पर्याय से अत्यन्त भिन्न, गुणभेद से भी भिन्न, अनन्त गुणों का अखण्ड पिण्ड, अनादि-अनन्त, ज्ञानानन्दस्वभावी निज भगवान आत्मा में अपनापन आना ही सम्यग्दर्शन है, अनुभवपूर्वक मात्र उसे ही निज जानना सम्यग्ज्ञान है और उपयोग को अन्यत्र सभी जगह से हटाकर मात्र उसमें ही लगा देना, उसी का ध्यान करना, उसी में जम जाना, रम जाना सम्यक्चारित्र है तथा यही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र सच्चा मुक्ति का मार्ग है। — -- इसी मुक्ति के मार्ग में अर्थात् भगवान आत्मा में ही स्थापित होने की, जमने - रमने की पावन प्रेरणा समयसार के समापन में दी गई है, जो इस प्रकार है "मोक्षपथ में थाप निज को, चेतकर निज ध्यान धर । निज में ही नित्य विहार कर, परद्रव्य में न विहार कर ॥ ४१२ ॥ " समयसार की मूल विषयवस्तु तक पहुँचने के लिए मात्र स्वाध्याय ही पर्याप्त नहीं हैं, मर्मज्ञों का मार्गदर्शन भी अत्यन्त आवश्यक है । सम्यदिशानिर्देश के बिना उसके मर्म तक पहुँच पाना असाध्य नहीं तो दुःसाध्य अवश्य है | भटक जाने के अवसर भी कम नहीं हैं; अतः आत्मार्थियों के लिए स्वाध्याय के साथ-साथ सत्समागम भी अपेक्षित है । देशनालब्धि में पढ़ने की अपेक्षा सुनने को अधिक महत्त्व दिया गया है; क्योंकि भाषा के साथ हाव-भावों से बहुत कुछ स्पष्टीकरण होता है। सर्वाधिक
SR No.009446
Book TitleBikhare Moti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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