SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार का प्रतिपादन केन्द्रबिन्दु भगवान आत्मा 197 ज्ञानस्वभावी इस भगवान आत्मा में ही नित्य रत रहो, इसमें ही संतुष्ट रहो, इससे ही पूर्ण तृप्त हो जावो, तुम्हें उत्तम सुख की प्राप्ति होगी।" पर व पर्यायों से विभक्त एवं अपने में अविभक्त इस एकत्व-विभक्त निज भगवान आत्मा को जाने-पहिचाने बिना ही जो साधक आत्मा की साधना करना चाहते हैं, वे न तो स्वयं ही सन्मार्ग में हैं और न अपने अनुयायियों को सन्मार्ग दिखा सकते हैं। इस परमसत्य की ओर आज किसी का भी ध्यान नहीं है। यही कारण है कि आज हम सभी व्यर्थ के विवादों में उलझकर रह गये हैं और निरन्तर उलझते ही जा रहे हैं। ___ आश्चर्य की बात तो यह है कि समयसार का स्वाध्याय एवं पठन-पाठन के उपरान्त भी ऐसा हो रहा है । इसका एकमात्र कारण यह है कि हम समयसार का स्वाध्याय भी शुद्ध आत्महित की दृष्टि से न करके अपने पक्ष के पोषण के लिए ही करने लगे हैं। परिणाम यह होता है कि रुचि की प्रतिकूलता में समयसार का मूल प्रतिपाद्य जो भगवान आत्मा है, वह हमारी पकड़ में नहीं आ पाता और हम अन्य प्रकरणों में ही उलझ कर रह जाते हैं। समयसार के मर्मज्ञ भी जो विवेचन प्रस्तुत करते हैं, उसे या तो हम सुनतेपढ़ते ही नहीं हैं, यदि प्रसंगवश सुनना-पढ़ना हो भी जाय तो अपने ही पूर्वाग्रहग्रस्त विकृत दृष्टिकोण से पढ़ने-सुनने के कारण उनका मूल प्रतिपाद्य हमारे ख्याल में नहीं आ पाता; अत: समयसार पढ़ने या सुनने से पूर्व दृष्टि की पवित्रता एवं परिणामों की निर्मलता अत्यन्त आवश्यक है। विद्वत्ता का अभिमान और त्याग का बड़प्पन भी एक सशक्त कारण है, जो विनम्र चित्त से समयसार की चर्चा सुनने-पढ़ने में अवरोध उत्पन्न करता है। समयसार की मूल विषयवस्तु सभी के गले उतरे - इसके लिए समाज का शान्त वातावरण अपेक्षित है। उक्त तथ्य शत-प्रतिशत सत्य होने पर भी आत्मार्थियों के लिए यह संभव नहीं है कि वे शांत सामाजिक वातावरण की प्रतीक्षा में अपने अमूल्य नरभव का एक पल भी व्यर्थ जाने दें, पर उनसे भी यह अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि सामाजिक वातावरण निर्मल करने में उनसे जो भी संभव हो, अवश्य करें।
SR No.009446
Book TitleBikhare Moti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy