SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २ जैनदर्शन का तात्त्विक पक्ष : वस्तुस्वातन्त्र्य जैनदर्शन में वस्तु के जिस अनेकान्तात्मक स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, उसमें वस्तुस्वातन्त्र्य को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । उसमें मात्र जन-जन की स्वतन्त्रता की ही चर्चा नहीं, अपितु प्रत्येक द्रव्य की पूर्ण स्वतंत्रता का सतर्क व सशक्त प्रतिपादन हुआ है। उसमें 'स्वतंत्र होना है' की चर्चा नहीं 'स्वतंत्र है' की घोषणा की गई है। 'होना है' में स्वतंत्रता की नहीं, परतन्त्रता की स्वीकृति है, 'होना है' अर्थात् नहीं है । जो है उसे क्या होना? स्वभाव से प्रत्येक वस्तु स्वतन्त्र ही है । जहाँ होना है की चर्चा है, वह पर्याय की चर्चा है । जिसे स्वभाव की स्वतन्त्रता समझ में आती है, पकड़ में आती है, अनुभव में आती है; उसकी पर्याय में स्वतन्त्रता प्रकट होती है अर्थात् उसकी स्वतन्त्र पर्याय प्रकट होती है । 1 वस्तुत: पर्याय भी परतन्त्र नहीं है । स्वभाव की स्वतन्त्रता की अजानकारी ही पर्याय की परतन्त्रता है। पर्याय के विकार का कारण 'मैं परतन्त्र हूँ' ऐसी मान्यता है, न कि परपदार्थ । स्वभावपर्याय को तो परतन्त्र- कोई नहीं मानता, पर विकारीपर्याय को परतन्त्र कहा जाता है । उसकी परतन्त्रता का अर्थ मात्र इतना है कि वह परलक्ष्य से उत्पन्न हुई है। पर के कारण किसी द्रव्य की कोई पर्याय उत्पन्न नहीं होती । विश्व का प्रत्येक पदार्थ पूर्ण स्वतन्त्र एवं परिणमनशील है, वह अपने परिणमन का कर्त्ता-धर्ता स्वयं है, उसके परिणमन में पर का हस्तक्षेप रंचमात्र भी नहीं है । यहाँ तक कि परमेश्वर (भगवान) भी उसकी सत्ता एवं परिणमन का कर्ता-धर्ता नहीं है। दूसरों के परिणमन अर्थात् कार्य में हस्तक्षेप की भावना ही मिथ्या, निष्फल और दुःख का कारण है; क्योंकि सब जीवों के
SR No.009446
Book TitleBikhare Moti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy