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________________ समयसार का प्रतिपादन केन्द्रबिन्दु भगवान आत्मा 195 हो जाता, रहता तो वह मिट्टीमय ही है; उसीप्रकार वर्णादिभावों का संयोग देखकर जीव को वर्णादिमय कह दिया जाता है, पर कह देने मात्र से जीव वर्णादिमय नहीं हो जाता, रहता तो वह चैतन्यमय ही है। भगवान आत्मा को वर्णादिवाला और गुणस्थानादिवाला कहना मिट्टी के घड़े में घी के घड़े जैसा ही व्यवहार है ।' परमार्थ से यह भगवान आत्मा वर्णादि से गुणस्थान पर्यन्त इन सभी भावों से भिन्न ही है। वर्णादिरूप परपदार्थों, रागादिरूप विकारी भावों एवं गुणादि के भेदविकल्पों से भी भिन्न यह भगवान आत्मा ही आत्मार्थिजनों का एकमात्र आराध्य है और इस भगवान आत्मा की उत्कृष्ट आराधना ही परमसाध्य है तथा तारतमभाव से नित्य वृद्धिंगत आराधना ही परमाराधना है, साधकभाव है। इसीलिए कहा गया है " एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः । साध्यसाधकभावेन द्विधैकः समुपास्यताम् ॥१ जिन्हें आत्मसिद्धि अभीष्ट है, वे आत्मार्थी जन साध्यभाव एवं साधनभाव से, दो प्रकार से इस ज्ञान के घनपिण्ड भगवान आत्मा की ही नित्य उपासना करें।" तात्पर्य यह है कि उपासना करने योग्य तो यह ज्ञान का घनपिण्ड एवं आनन्द का रसकंद निज भगवान आत्मा ही है। चाहे हम साध्यभाव से उपासना करें चाहे साधक भाव से, पर उपास्य तो एक मात्र निज भगवान आत्मा ही है, उपासना तो निज भगवान आत्मा की ही करनी है। पर की उपासना से बंधनों का नाश नहीं होता, बंधनों का नाश तो निज भगवान आत्मा की आराधना से ही होता है । निज भगवान आत्मा को जानना - पहिचानना, उसमें ही अपनापन स्थापित करना, उसमें ही जमना - रमना, उसका ही ध्यान धरना - यही निज भगवान आत्मा की उपासना है और इसे ही जिनागम में निश्चय से सम्यग्दर्शन - ज्ञानचारित्र कहा गया है, यही साक्षात् मुक्ति का मार्ग है । अतः यह स्पष्ट है कि १. आत्मख्याति, कलश ४० २. आत्मख्याति, कलश १५
SR No.009446
Book TitleBikhare Moti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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