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________________ 194 बिखरे मोती ज्ञानानन्दस्वभावी यह भगवान आत्मा न तो प्रमत्त है, न अप्रमत्त है, न मात्र ज्ञान है, न मात्र दर्शन है और न मात्र चारित्र ही है, दर्शन-ज्ञान-चारित्र का एक अभेद अखण्ड पिण्ड है। परमध्यान का ध्येय परमश्रद्धेय वह भगवान आत्मा न कर्मों से बद्ध है और न कोई परपदार्थ उसे स्पर्श ही कर सकता है। वह परमपदार्थ पर से पूर्णत: असंयुक्त, अपने में सम्पूर्णतः नियत, हानि-वृद्धि रहित, स्वयं से अनन्य एवं समस्त विशेषों से रहित है। यह भगवान आत्मा न केवल समयसार का ही मूल प्रतिपाद्य है, समस्त जिनागम का भी मूल प्रतिपाद्य यही भगवान आत्मा है । यही कारण है कि इस भगवान आत्मा के जाननेवाले को सम्पूर्ण जिनशासन का ज्ञाता कहा है,३ निश्चयश्रुतकेवली कहा है। समयसार की ५०वीं गाथा से ५५वीं गाथा तक कहा गया है कि इस भगवान आत्मा के वर्ण नहीं है, गंध नहीं है, रस नहीं है, स्पर्श नहीं है, रूप नहीं है, शरीर नहीं है, संस्थान नहीं है, संहनन नहीं है, राग नहीं है, द्वेष नहीं है, मोह नहीं है, प्रत्यय नहीं है, कर्म नहीं है, नोकर्म नहीं है, वर्ग नहीं हैं, वर्गणा नहीं है, स्पर्धक नहीं है, अध्यात्मस्थान नहीं है, बंधस्थान नहीं है, उदयस्थान नहीं है, स्थितिबंधस्थान नहीं है, संक्लेशस्थान नहीं है, विशुद्धिस्थान नहीं है, संयमलब्धिस्थान नहीं है, जीवस्थान नहीं है, मार्गणास्थान नहीं है और गुणस्थान भी नहीं है। • यह स्वसंवेद्य भगवान आत्मा तो अनादि-अनन्त, अचल, चैतन्यमय, स्वयं अत्यन्त प्रकाशमान प्रगट परमज्योतिस्वरूप है। जिसप्रकार घृत का संयोग देखकर मिट्टी के घड़े को घी का घड़ा कह दिया जाता है, उसीप्रकार वर्णादिभावों का संयोग देखकर जीव को वर्णादि वाला कह दिया जाता है; परन्तु जिसप्रकार घी का घड़ा कह देने मात्र से मिट्टी का घड़ा घृतमय नहीं १. समयसार, गाथा ६-७ २. समयसार, गाथा १४ ३. समयसार, गाथा १५ ४. समयसार, गाथा ९ ५. आत्मख्याति, कलश ४१
SR No.009446
Book TitleBikhare Moti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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