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तृतीय खण्ड सैद्धान्तिक
१
समयसार का प्रतिपादन केन्द्रबिन्दु
भगवान आत्मा
(जैनपथप्रदर्शक के समयसार विशेषांक अक्टूबर १९८९ से )
ग्रन्थाधिराज समयसार का मूल प्रतिपाद्य अर्थात् प्रतिपादन - केन्द्रबिन्दु परम पारिणामिकभाव रूप वह भगवान आत्मा ही है, जिसके जानने का नाम सम्यग्ज्ञान, जिसमें अपनापन स्थापित करने का नाम सम्यग्दर्शन और जिसमें जमने - रमने का नाम सम्यक् चारित्र है।
परमशुद्धनिश्चयनय के विषयभूत इस भगवान आत्मा को जिनागम में विशेषकर समयसार में - ज्ञायकभाव, परमभाव, परमपदार्थ, परमार्थ, परमात्मा, कारणपरमात्मा, निजभाव, ज्ञानघन, त्रिकालीध्रुव, समय, समयसार, एकत्व - विभक्त, अतीन्द्रिय महापदार्थ आदि नामों से अभिहित किया गया है।
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अपने सम्पूर्ण प्रज्ञारूपी वैभव से इसी एकत्व - विभक्त भगवान आत्मा को दिखाने की प्रतिज्ञा समयसार के प्रारम्भ में की गई है।
१. समयसार, गाथा ५
२. समयसार, गाथा ४९
चेतनागुण से समृद्ध यह भगवान आत्मा अरस है, अरूप है, अगंध है, अस्पर्श है, अशब्द है; अतः इन्द्रियग्राह्य नहीं है; अव्यक्त है, अतीन्द्रिय महापदार्थ है'। पर और पर्याय से पृथक् यह भगवान आत्मा मोह-ममता से रहित होने के कारण निर्मम है, स्वयंभू है, परमशुद्ध एवं स्वयंसिद्ध है ।