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कविवर पण्डित बनारसीदास (जैनपथप्रदर्शक के, पण्डित बनारसीदास विशेषांक मार्च १९८७ से)
जिन-अध्यात्म-गगन के दैदीप्यमान नक्षत्र कविवर पण्डित बनारसीदासजी हिन्दी-साहित्य-गगन के भी चमकते सितारे हैं, हिन्दी आत्मकथा साहित्य के तो आप आद्य प्रणेता ही हैं । यह मात्र कल्पना नहीं, अपितु हिन्दी साहित्य जगत का एक स्वीकृत तथ्य है। इस सन्दर्भ में हिन्दी साहित्य के अधिकारी विद्वान श्री बनारसीदासजी चतुर्वेदी के निम्नांकित विचार द्रष्टव्य हैं - ___ "कविवर बनारसीदास के आत्मचरित 'अर्द्धकथानक' को आद्योपान्त पढ़ने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि हिन्दी साहित्य के इतिहास में इस ग्रन्थ का एक विशेष स्थान तो होगा ही, साथ ही इसमें वह संजीवनी शक्ति विद्यमान है, जो इसे अभी तक कई सौ वर्षों तक जीवित रखने में सर्वथा समर्थ होगी। सत्यप्रियता, स्पष्टवादिता, निरभिमानता और स्वाभाविकता का ऐसा जबरदस्त पुट इसमें विद्यमान है, भाषा इस पुस्तक की इतनी सरल है और साथ ही साथ इतनी संक्षिप्त भी है कि साहित्य की चिरस्थाई सम्पत्ति में इसकी गणना अवश्यमेव होगी। हिन्दी का तो यह प्रथम आत्मचरित है ही, पर अन्य भारतीय भाषाओं में भी इसप्रकार की और इतनी पुरानी पुस्तक मिलना आसान नहीं है और सबसे अधिक आश्चर्य की बात तो यह है कि कविवर बनारसीदास का दृष्टिकोण आधुनिक आत्मचरित-लेखकों के दृष्टिकोण से बिल्कुल मिलता-जुलता है । अपने चारित्रिक दोषों पर उन्होंने पर्दा नहीं डाला है, बल्कि उनका विवरण इस खूबी के साथ किया है, मानो कोई वैज्ञानिक तटस्थ वृत्ति से विश्लेषण कर रहा हो। आत्मा की ऐसी चीर-फाड़ कोई अत्यन्त कुशल साहित्यिक सर्जन ही कर सकता था। १. अर्द्धकथानक, हिन्दी का प्रथम आत्मचरित, पृष्ठ २