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बिखरे मोती जिनवाणी तो हमारी गोद में, हमारे माथे पर आ ही गयी है। यह तो हम अपने माथे से उतारने वाले है ही नहीं, लेकिन हमारी समाज की भी एक समस्या है। महाराज श्री कोई आदेश दें और समाज उसको न मानें – यह कैसे सम्भव है? वीतरागी नग्न दिगम्बर साधु भी हमारे सिरमोर हैं और उनकी उपेक्षा नागपुर समाज तो क्या कोई भी समाज कैसे कर सकती है? इसलिए इस समाज की यह एक मजबूरी भी हो सकती है, यह बात हमको गहराई से अनुभव करना चाहिए कि इस दिशा में हम क्या कर सकते हैं ? ___मेरे पास एक भाई श्री शिखरचन्दजी का एक पत्र आया है और उन्होंने मुझे यह पढ़कर भी सुनाया है। उन्होंने मुझसे अनुरोध किया है कि आज आप उसे सभा में पढ़कर सुना दीजिए और इसके बारे में समाधान कर दीजिए। समाज को गलतफहमी है, वह कुछ दूर हो सकें, इसलिए पहले मैं उनका पत्र पढ़कर सुनाता हूँ और फिर मैं अपनी तरफ से उस गलतफहमी को दूर करने का प्रयास करूंगा।.
हम आपसे हाथ-जोड़कर प्रार्थना करते है कि एक दिन का, दो दिन का समय हमको दीजिए, जिससे इस माहोल में जो दोनों तरफ उत्तेजना बढ़ गई है, उसे हम अपने प्रयत्नों से शान्त कर सकें । यदि हम सफल न हुए तो अपना रास्ता चुनने के लिए हर एक को अवसर मौजूद ही है। जिदंगी में ऐसे मौके बहुत कम आते हैं। पत्र में लिखा है - ___ पहला प्रश्न : सोनगढ़ और उनके साहित्य से अभी आपका क्या संबंध है? ऐसा पता चला है कि आपने यह प्रकाशित किया है कि उनसे अब आपका कोई भी सम्बन्ध नहीं रहा तो आप अभी इस शिविर में भी यह घोषणा करें, ताकि समाधान हो सकें।
भाई! मैं आपको बताना चाहता हूँ, पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी के स्वर्गवास के बाद कुछ ऐसे लोगों के हाथ में सोनगढ़ की व्यवस्था चली गयी कि जिनको न तो समाज की स्थिति की पूरी जानकारी है और न वे धार्मिक क्रियाओं के बारे में ही पूरी तरह वाकिफ है। हमारे बहुत प्रयत्न करने के बाद भी वे लोग नहीं माने और उन्होंने यह भावी तीर्थंकर की मूर्ति विराजमान कर दी। इस कारण हमारे लोगों ने इस्तीफा दे दिया। 12 में से 8 ट्रस्टी हमारे थे