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________________ श्री पूरनचन्दजी गोदीका : एक अनोखा व्यक्तित्व (वीतराग-विज्ञान के, श्री पूरनचन्दजी गोदीका विशेषांक, दिसम्बर/जनवरी, १९८९-९० से) आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी और श्रीमान् सेठ श्री पूरनचन्दजी गोदीका के वियोग ने मुझे सर्वाधिक आन्दोलित किया है; क्योंकि एक से मुझे वीतरागी तत्त्वज्ञान मिला और दूसरे ने उसी वीतरागी तत्त्वज्ञान को जन-जन तक पहुँचाने के साधन जुटाये; एक का आशीर्वाद मुझे सतत् प्राप्त रहा, वरद हस्त मेरे मस्तक पर निरन्तर रहा तो दूसरे का असीम वात्सल्य भी आजीवन प्राप्त रहा है; एक की सभा में प्रमुख श्रोता के रूप में नियत स्थान पर बैठने का सुअवसर प्राप्त रहा तो दूसरे मेरी सभा के प्रमुख श्रोता रहे, अपने नियत स्थान पर बैठकर जीवन के अन्तिम दिन तक प्रवचन सुनते रहे। आज भी जब मैं श्री टोडरमल स्मारक भवन के प्रवचन मण्डप में प्रवचन करने बैठता हूँ, तो मेरी दृष्टि बरबस ही उधर जाती है, जहाँ प्रवचन सुनने के लिए गोदीकाजी बैठा करते थे। उन जैसा नियमित एवं सतत् जागृत श्रोता मिलना आज दुर्लभ ही है। उनके शान्त सौम्य चेहरे पर एकदम सरल, सहज वैराग्यभाव सम्पूर्ण प्रवचनकाल में निरन्तर बहते रहते थे। प्रवचन के पाँच मिनट पहले अपना स्थान ग्रहण कर लेना और जिनवाणी स्तुति हो जाने के पूर्व कभी सभा छोड़कर नहीं जाना उनका दैनिक क्रम था। ___ इसमें कोई शक नहीं कि उनके क्षयोपशमज्ञान में जैनदर्शन का मूल तत्त्व अच्छी तरह आ गया था। त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा ही एकमात्र आराध्य है, साध्य है; - यह वे अच्छी तरह समझ चुके थे। जीवन के अन्तिम क्षण
SR No.009446
Book TitleBikhare Moti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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